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________________ समणोवासयस्स–श्रमणोपासक सद्दालपुत्र की, एयमढें पडिसुणेइ इस बात को स्वीकार किया, पडिसुणेत्ता स्वीकार करके, कुम्भारावणेसु बर्तनों की दुकानों से, पाडिहारियं पीढ जाव-प्रातिहारिक के रूप में पीठ यावत् फलक, शय्या, संस्तारकादि, ओगिण्हित्ताणं विहरइ ग्रहण कर के विचरने लगा। ____ भावार्थ मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सद्दालपुत्र की इस बात को स्वीकार किया और उसकी बर्तनों की दुकानों से प्रातिहारिक रूप में पीठ आदि ग्रहण करके विचरने लगा। ___मूलम् तए णं से गोसाले मंखलि-पुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते पोलासपुराओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ // 222 // छाया ततः खलु स गोशालो मंखिलपुत्रः सद्दालपुत्रं श्रमणोपासकं यदा नो शक्नोति बहुभिराख्यापनाभिश्च प्रज्ञापनाभिश्च सज्ञापनाभिश्च विज्ञापनाभिश्च नैर्ग्रन्थ्यात् प्रवचनाच्चालयितुं वा, क्षोभयितुं वा, विपरिणमयितुं वा, तदा श्रान्तस्तान्तः परितान्तः पोलासपुरानगराप्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहारं विहरति / ___ शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से गोसाले मंखलिपुत्ते—वह मंखलिपुत्र गोशालक, बहूहिं आघवणाहि य–अनेक प्रकार की आख्यापनाओं (सामान्य कथनों), पण्णवणाहि य—प्रज्ञापनाओं (विविध प्ररूपणाओं), सण्णवणाहि य—संज्ञापनाओं (प्रतिबोधों), विण्णवणाहि य—और विज्ञापनाओं (अनुनय वचनों के द्वारा), सद्दालुपत्तं समणोवासयं श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को, निग्गंथाओ पावयणाओ—निर्गन्थ प्रवचन से, चालित्तए वा विचलित करने में, खोभित्तए वा क्षुब्ध करने में, विपरिणामित्तए वा विचार बदलने में, जाहे नो संचाएइ जब समर्थ न हो सका, ताहे संते—तब श्रान्त, तंते—खिन्न, परितंते—अत्यन्त दुखी होकर, पोलासपुराओ नगराओ पडिणिक्खमइ—पोलासपुर नगर से बाहर निकला, पडिणिक्खमित्ता—निकलकर, बहिया जणवय-विहारं विहरइ–बाहर के जनपदों में विहार करने लगा। . भावार्थ—जब मंखलिपुत्र गोशालक अनेक प्रकार की आख्यापनाओं—सामान्य कथनों से प्रज्ञापनाओं—प्रतिपादनों, संज्ञापनाओं—प्रतिबोधों तथा विज्ञापनाओं-अनुनय वचनों से श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित, क्षुब्ध और विरुद्ध न कर सका तब श्रान्त, खिन्न और अत्यन्त दुखी होकर पोलासपुर नगर से बाहर चला गया और बाहर के जनपदों में विहार करने लगा। टीका किसी प्रकार की सांसारिक अभिलाषा के बिना यदि भगवान महावीर जैसे महापुरुषों का | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 323 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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