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________________ सब्भूएहिं भावेहिं गुणकित्तणं करेह, तम्हा णं अहं तुब्भे पाडिहारिएणं पीढ जाव संथारएणं उवनिमंतेमि।" नो चेव णं धम्मोत्ति वा, तवोत्ति वा, तं गच्छह णं तुब्भे मम कुम्भारावणेसु पाडिहारियं पीढ-फलग जाव ओगिण्हित्ताणं विहरह" || 220 // छाया-ततः खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासको गोशालं मङ्खलिपुत्रमेवमवादीत्–“यस्मात्खलु देवानुप्रियाः! यूयं मम धर्माचार्यस्य यावन्महावीरस्य सद्भिस्तत्त्वैस्तथ्यैः सद्भूतैर्भावैर्गुणकीर्तनं कुरुथ, तस्मात् खलु अहं युष्मान् प्रातिहारिकेण पीठ यावत्संस्तारकेणोपनिमन्त्रयामि / " नो चैव खलु धर्म इति वा, तप इति वा, तद्गच्छत खलु यूयं मम कुम्भकारापणेषु प्रातिहारिकं पीठफलक यावद् अवगृह्य विहरत। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से सद्दालपुत्ते समणोवासए—वह श्रमणोपासक सद्दालपुत्र, गोसालं मंखलिपुत्तं गोशाल मङ्खलिपुत्र को, एवं वयासी इस प्रकार बोला—जम्हा णं देवाणुप्पिया!- हे देवानुप्रिय! चूंकि, तुब्भे तुम ने, मम धम्मायरियस्स जाव महावीरस्स—मेरे धर्माचार्य यांवत् श्रमण भगवान् महावीर का, संतेहिं—सद्प सत्य, तच्चेहिं तत्त्वरूप, तहिएहिं–तथ्यरूप, सब्भूएहिं भावेहिं सद्भूत भावों द्वारा, गुणकित्तणं करेह—गुण कीर्तन किया है, तम्हा णं अहं तुब्भे—इसलिए मैं तुम्हें, पाडिहारिएणं—प्रातिहारिक, पीढ जाव संथारएणं उवनिमंतेमि—पीठ यावत् फलक, शय्या संस्तारक आदि के लिए उपनिमन्त्रणा करता हूं, नो चेव णं धम्मोत्ति वा तवोत्ति वा इसे धर्म या तप समझकर नहीं, तं गच्छह णं तुब्भे—इसलिए आप जाओ और, मम कुम्भारावणेसु मेरी बर्तनों की दुकान से, पाडिहारियं पीढ फलग—प्रातिहारिक के रूप में अर्थात् वापिस लौटाने की शर्त पर पीठ-फलक, जाव—यावत् शय्या-संस्तारक आदि, ओगिण्हित्ताणं विहरह ग्रहण करके विचरें। भावार्थ इस पर श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा- "देवानुप्रिय ! चूंकि तुमने मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर का सत्य, तथ्य तथा सद्भूत गुण कीर्तन किया है इसलिए मैं तुम्हें प्रातिहारिक, पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए उपनिमन्त्रणा करता हूं यद्यपि मैं इसमें धर्म और तप नहीं मानता। तो आप जाएं और मेरी बर्तनों की दुकानों से पीठ, फलक, शय्या संस्तारक आदि ग्रहण करके विचरें।" मूलम् तए णं से गोसाले मंखिलुपत्ते सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयमठें पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता कुम्भारावणेसु पाडिहारियं पीढ जाव ओगिण्हित्ताणं विहरइ // 221 // छाया–ततः खलु स गोशालो मङ्खलिपुत्रः सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्यैतमर्थं प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य कुम्भकारापणेषु प्रातिहारिकं पीठ यावद् अवगृह्य विहरति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से गोसाले मंखलिपुत्ते—उस मंखलिपुत्र गोशाल ने, सद्दालपुत्तस्स | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 322 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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