________________ 1. ग्यारह अंग, दृष्टिवाद को छोड़कर / 2. बारह उपांग-उववाइय, रायप्पसेणिय, जीवाभिगम, पण्णवणा, सूरपण्णत्ती जंबूदीवपण्णत्ती, चंदप्पण्णत्ती, कप्पिया, कप्पवडंसिया, पुफिया, पुप्फचूलिया और वण्हीदसा / 3. चार मूल—आवस्सय, दसवेआलिय, उत्तरज्झयण और पिंडनिज्जुत्ति। .. 4. छेद–निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, पंचकप्प, महानिसीह। 5. दस पइण्णा—चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारओ, तंदुलवेयालिय, चन्दवेज्झओ, देविंदत्थव, गणिविज्जा, महापच्चक्खाण, वीरत्थव / आगमों का विषय विभाजन आर्यरक्षित ने आगमों को विषय की दृष्टि से चार अनुयोगों में विभक्त किया है। चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग। आचार का प्रतिपादन करने वाले आचारांग, दशवैकालिक, आवश्यक आदि सूत्रों को प्रथम अनुयोग में गिना जाता है। धार्मिक दृष्टान्त, कथा एवं चरित्रों का वर्णन करने वाले ज्ञाताधर्मकथा, उत्तराध्ययन आदि दूसरे अनुयोग में आते हैं। गणित का प्रतिपादन करने वाले सूरपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती आदि गणितानुयोग में आते हैं। दार्शनिक तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाले दृष्टिवाद आदि द्रव्यानुयोग में आते हैं। उपरोक्त चार अनुयोगों में विषय की दृष्टि से आगमों का विभाजन होने पर भी भेद-रेखा स्पष्ट रूप से नहीं खींची जा सकती। उत्तराध्ययन में धर्मकथाओं के साथ-साथ दार्शनिक तथ्यों का भी पर्याप्त निरूपण है। भगवती तो सभी विषयों का समुद्र है। आचारांग में भी यत्र-तत्र दार्शनिक तत्त्व मिल जाते हैं। इसी प्रकार कुछ को छोड़कर अन्य सभी आगमों में चार अनुयोगों का सम्मिश्रण है। इसलिए उपरोक्त विभाजन को मुख्य विषय की दृष्टि से स्थूल विभाजन ही मानना चाहिए। श्रीमद्राजचन्द्र इन चारों अनुयोगों का आध्यात्मिक उपयोग बताते हुए लिखते हैं यदि मन शंकाशील हो गया हो तो द्रव्यानुयोग का चिंतन करना चाहिए। प्रमाद में पड़ गया हो तो चरणकरणानुयोग का, कषाय से अभिभूत हो गया हो तो धर्मकथानुयोग का और जड़ता प्राप्त कर रहा हो गणितानुयोग का। ___ सांख्यदर्शन की दृष्टि से देखा जाए तो शंका और कषाय रजोगुण के परिणाम हैं और प्रमाद एवं अज्ञान (जड़ता) तमोगुण के। उन दोनों प्रभावों को दूर करके सत्व गुण की वृद्धि के लिए उपरोक्त अनुयोगों का चिन्तन लाभदायक है। इनमें दूसरे अनुयोगों का चिन्तन करणानुयोग के लिए है। द्रव्यानुयोग से दर्शन अर्थात् दृष्टि की शुद्धि होती है और दृष्टि की शुद्धि से सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है। इसलिए चरणकरणानुयोग ही प्रधान है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 28 / प्रस्तावना