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________________ प्रारम्भ हो गया था किन्तु इसे प्रोत्साहन देवर्द्धिगणी के बाद ही मिला। 3. जैन आगमों का अन्तिम रूप स्थिर कर दिया गया। इसके बाद जो ग्रन्थ रचे गए उन्हें आगमों में नहीं लिया गया। जन्दी-सूत्र के अनुसार आगमों का ग्रन्थ विभाजन आगमों की संख्या के विषय में कई मान्यताएं हैं। एक परंपरा चौरासी आगम मानती है। दूसरी परम्परा के अनुसार उनकी संख्या पैंतालीस है। स्थानकवासी सम्प्रदाय केवल बत्तीस आगमों को प्रमाण मानती है। आधुनिक प्रचलित मान्यताओं की चर्चा में न जाकर नन्दी-सूत्र द्वारा किए गए विभाजन को प्रस्तुत करते हैं। संक्षेप में आगम दो प्रकार के हैं—अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य / अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं—आयार, सूयगड, ठाण, समवाअ, विवाहपन्नत्ती, नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हवागरणाइं, विवागसुअं, दिट्ठिवाअ / अंगबाह्य के दो भेद हैं—आवश्यक तथा आवश्यक व्यतिरिक्त / आवश्यक के छ: भेद हैं—सामाइय, चउवीसत्थव, वंदणय, पडिक्कमण, काउसग्ग तथा पच्चक्खाण। / आवश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद हैं—कालिय तथा उक्कालिय / कालिक के अनेक भेद हैं—उत्तराज्झयण, दसा, कप्प, ववहार, निसीह, महानिसीह, इसिभासिय, जंबूदीवपन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती, चंदपन्नत्ती, खुड्डियाविमाणविभत्ती, महल्लियाविमाणविभत्ती, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, विवाहचूलिया, अरुणोववाअ, वरुणोववाअ, गरुलोववाअ, धरणोववाअ, वेसमणोववाअ, वेलंधरोववाअ, देविंदोववाअ, उट्ठाणसुअ, नागपरियावणिआ, निरयावलिया, कप्पिआ, कप्पवडंसिआ, पुष्फिआ, पुप्फचूलिआ, वण्हीदसा इत्यादि। इनके अतिरिक्त प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के चौरासी हजार प्रकीर्णक / दूसरे से लेकर तेइसवें तीर्थंकर तक संख्यात प्रकीर्णक। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के चौदह हजार प्रकीर्णक। उत्कालिक-श्रुत भी अनेक प्रकार के हैं—दशवैकालिक, कप्पिआकप्पिअ, चुल्लकप्पसुअं, महाकप्पसुअं, उववाइअं, रायपसेणिअं, जीवाभिगम, पण्णवणा, महापण्णवणा, पमायप्पमायं, नंदी, अणुओगदाराई, देविंदत्थओ, तंदुलवेआलियं, चंदविज्झयं, सूरपण्णत्ती, पोरिसीमंडल, मंडलपवेस, विज्जाचरणविणिच्छय, गणिविज्जा, झाणविभत्ती, मरणविभत्ती, आयविसोही, वीयरायसुअं, संलेहणासुअं, विहारकप्प, चरणविही, आउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण इत्यादि / उपरोक्त विभाजन में बहुत से ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं हैं। आवश्यक के वन्दना आदि छ: भेद स्वतन्त्र आगम न होकर एक ही आगम के विभिन्न प्रकरण हैं। अंगों में बारहवें दृष्टिवाद का लोप हो चुका है। आज कल नीचे लिखे अनुसार विभाजन किया जाता है— . श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 27 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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