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________________ वल्लभी वाचना (वी. नि. 830 के लगभग) __ जिस समय मथुरा में आर्य स्कन्दिल ने आगमोद्धार करके उनकी वाचना शुरू की उसी समय नागार्जुन सूरि ने वल्लभी नगरी (सौराष्ट्र) में श्रमण-संघ एकत्रित किया। और दुर्भिक्ष के बाद बचे हुए आगमों का उद्धार किया। वाचक नागार्जुन एवं अन्य श्रमणों को जो जो आगम अथवा प्रकरण ग्रन्थ याद थे वे सब लिख लिए गए। विस्मृत स्थलों का पूर्वापर सम्बन्ध देखकर सन्दर्भ मिलाया गया और फिर वाचना दी गई। इस वाचना में आचार्य नागार्जुन प्रमुख थे, इसलिए इसे नागार्जुनी वाचना भी कहा जाता है। __माथुरी और वल्लभी दोनों स्थानों की वाचनाएं प्राय एक ही समय में हुईं। इसलिए यह कहना अनावश्यक है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन एक ही समय में विद्यमान थे। किन्तु वाचनाओं के बाद उनका परस्पर मिलना नहीं हुआ। इसलिए दोनों वाचनाओं में परस्पर कुछ पाठ-भेद रह गया, उसका उल्लेख टीकाओं में अब तक पाया जाता है। नागार्जुन की वाचनाओं में मेल वाले अंश को टीकाकार “नागार्जुनीयास्तु' कहकर बता देते हैं। वल्लभी वाचना का वैशिष्ट्य यह है कि उसमें प्रकरण ग्रन्थों को भी श्रुत-ज्ञान में स्थान मिल गया। देवर्द्धिगणी (वी. नि. 680) उपरोक्त वाचनाओं के लगभग 150 वर्ष पश्चात् वल्लभी नगर (सौराष्ट्र) में श्रमण संघ फिर सम्मिलित हुआ। उस सम्मेलन के अध्यक्ष देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण थे। उसमें उपरोक्त वाचनाओं में सम्मिलित साहित्य के अतिरिक्त जो ग्रन्थ या प्रकरण आदि थे, उन्हें सुरक्षित करने का प्रयत्न किया गया। ___ इस श्रमण सम्मेलन में दोनों वाचनाओं के पाठों का परस्पर समन्वय किया गया और जहां तक हो सका उन्हें एक रूप दे दिया गया। जो महत्वपूर्ण भेद थे, उन्हें पाठान्तर के रूप में चूर्णियों में संगृहीत किया। कुछ प्रकीर्ण ग्रन्थ जो एक ही वाचना में थे वे ज्यों के त्यों प्रमाण मान लिए गए। उपर्युक्त व्यवस्था के बाद सभी आगम एवं प्रकरण-ग्रन्थ स्कन्दिल की माथुरी वाचना के अनुसार लिखे गए। नागार्जुनी वाचना का पाठ भेद टीका में लिख दिया गया। जिन पाठान्तरों को नागार्जुन की परम्परा वाले छोड़ने को तैयार नहीं थे, उनका मूलसूत्र में भी (वाचनान्तरे पुनः) वायणंतरे पुण (देखो कल्पसूत्र-वायणांतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ दीसइ) शब्दों द्वारा उल्लेख किया गया। देवर्द्धिगणी की अध्यक्षता में जो वाचना हुई उसमें नीचे लिखी बातें महत्वपूर्ण हैं 1. माथुरी और नागार्जुनी वाचनाओं का समन्वय किया गया। जैन परम्परा के लिए यह अत्यन्त महत्व की बात है। 2. शास्त्रों के लेखन की परिपाटी आरंभ की गई। यद्यपि लेखन आर्य स्कन्दिल के समय ही श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 26 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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