________________ की स्थापना की। उस परम्परा में खपटाचार्य और पादलिप्त सूरि भी हुए। युगप्रधान पट्टावली में इनका युग इस प्रकार बताया गया है—वज्र (वर्ष) आर्यरक्षित (13 वर्ष) पुष्पमित्र (20 वर्ष) वज्रसेन (3 वर्ष) नागहस्ती (66 वर्ष) रेवती मित्र (56 वर्ष) ब्रह्मदीपकसिंह (78 वर्ष) स्कन्दिल (13 वर्ष)। जिस प्रकार भद्रबाहु के समय दुर्भिक्ष के कारण श्रुत परम्परा छिन्न-भिन्न हो गई थी, उसी तरह आचार्य स्कन्दिल के समय भी दुष्काल के कारण आगमों का ज्ञान अस्तव्यस्त हो गया। बहुत से श्रुतधर स्थविर परलोकवासी हो गए। अवशिष्ट श्रमणों में भी पठन-पाठन की प्रवृत्ति बन्द हो गई। आचार्य स्कन्दिल ही एक श्रुतधर बचे थे। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर उनको अध्यक्षता में मथुरा में श्वेताम्बर श्रमण-संघ एकत्रित हुआ और आगमों को व्यवस्थित करने में लग गया। उनको जितना पाठ याद था, उतना लिख लिया गया। इस प्रकार सारा पाठ लिख लेने के बाद आर्य स्कन्दिल ने साधुओं को उसकी वाचना दी। इसको स्कन्दिली-वाचना भी कहा जाता है। माथुरी वाचना का वर्णन आचार्य मलयगिरि की नन्दी-टीका, ज्योतिषकरण्ड की टीका, भद्रेश्वर की कथावली और हेमचन्द्र के योगशास्त्र में मिलता है। कहा जाता है कि उस समय कालिक-श्रुत और अवशिष्ट पूर्व-श्रुत को संगठित किया गया। माथुरी वाचना से नीचे लिखी महत्वपूर्ण बातें मालूम पड़ती हैं 1. उन दिनों जैनधर्म का केन्द्र मगध से हटकर मध्यप्रदेश में आ गया था। सम्भवतया दुर्भिक्षों के कारण ऐसी स्थिति आई हो और मगंध के दुर्भिक्ष के कारण बहुत से साधु इधर चले आए हों और वहीं विचरने लगे हों। 2. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल की मान्यता है कि मथुरा ई. पू. द्वितीय शताब्दी से लेकर ईसा के बाद ग्यारहवीं शताब्दी तक लगभग 1300 वर्ष जैन धर्म का महत्व पूर्ण केन्द्र रहा है। (देखो श्रमण अगस्त 1653) कंकाली टीले में जैन-स्तूप या स्थापत्य के जो अन्य अवशेष मिले हैं वे तो ई. पू. छठी शताब्दी अर्थात् भगवान महावीर के समकालीन हैं। किन्तु शिलालेख प्रायः ई. पू. द्वितीय शताब्दी से पश्चाद्वर्ती हैं। इससे जैन परम्परा की यह बात पुष्ट होती है कि भगवान महावीर के समय जैन धर्म बहुत अधिक फैला हुआ था। 3. वीर-निर्वाण के 300 वर्ष बाद मौर्य राजा बृहद्रथ को मारकर उसका सेनानी पुष्यमित्र मगध के सिंहासन पर बैठ गया। वंह केवल वैदिक धर्म का अनुयायी ही नहीं था, अन्य धर्मों से द्वेष भी करता था। नन्द और मौर्य राजाओं ने अपने-अपने धर्म में निष्ठा के साथ अन्य धर्मों का उचित सत्कार किया। अशोक और सम्पत्ति ने तो बौद्ध और जैन धर्म के विकास के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए। पुष्यमित्र ने उनके द्वारा बनाए हुए संघाराम और उपाश्रयों को नष्ट करके जैन एवं बौद्ध भिक्षुओं को भगाना आरम्भ किया। उसने साधुओं पर कर लगाया और उनके कपड़े उतरवा लिए। सम्भवतया उसी समय मगध जैन एवं बौद्ध श्रमणों से शून्य हो गया। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 25 / प्रस्तावना