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________________ प्रकार के दृष्टान्त-कथाओं, व्याख्याओं तथा प्रश्नोत्तरों द्वारा सबको धर्म का रहस्य समझाया करते थे। इसलिए उन्हें महाधर्म-कथी कहा गया है। 5. महानिर्यामक—पांचवां विशेषण है। इसका अर्थ है महाकर्णधार / संसार एक समुद्र के समान है, जहां अनेक प्राणी डूब रहे हैं, भंवर में फंसे हुए हैं। भगवान् महावीर उन्हें धर्म रूपी नौका द्वारा पार उतारते हैं। अतः वे महा-कर्णधार हैं। ____ उपरोक्त पांच विशेषणों में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों को उपस्थित किया गया है। महामाहन विशेषण में उनकी ज्ञान एवं चारित्र सम्पत्ति का वर्णन है। वहां वे सर्वोच्च आदर्श के रूप में उपस्थित होते हैं। महागोप विशेषण में वे रक्षक के रूप में सामने आए हैं। अज्ञानी जीव पशुओं के समान हैं। उन्हें धर्म रूपी दण्ड द्वारा इधर-उधर भटकने से रोकने वाला तथा उन्हें अपने इष्ट स्थान पर पहुँचाने वाला महागोप है। यहाँ धर्म को दण्ड की उपमा दी गई है। दण्ड कठोरता या हिंसा का सूचक होता है। किन्तु साधक को दूसरों के प्रति मृदु किन्तु अपने प्रति सदा कठोर रहना चाहिए। इसी का नाम अनुशासन है और अनुशासन के बिना जीवन का विकास नहीं हो सकता। तीसरे विशेषण में संसार को अटवी बताया गया है और जीव को उसमें भटकने वाला पथिक / मोक्ष को वह नगर जहां पहुँचना है। और महावीर को वहाँ पहुँचाने वाला सार्थवाह / यहाँ वे नेता या निर्यामक के रूप में सामने आते ___चौथे विशेषण में उन्हें धर्म-कथी कहा गया है। अज्ञानी जीव मिथ्यात्व रूपी अन्धकार में फंसे हुए हैं। सन्मार्ग छोड़कर कुमार्ग को पकड़े हुए हैं। धर्मोपदेशक अन्धकार को दूर करके सन्मार्ग को आलोकित करता है। यहां वे पथप्रदर्शक के रूप में सामने आते हैं। पाँचवें विशेषण में निर्यामक अर्थात् कर्णधार से उपमा दी गई है। संसार समुद्र है, प्राणी उसमें गोते खा रहे हैं, भगवान् धर्मरूपी नौका के द्वारा उन्हें पार उतारते हैं। यहां उनका समुद्धारक रूप सामने आता है। __ मूलम तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एवं वयासी–“तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इय-च्छेया जाव इय-निउणा, इय-नयवादी, इय-उवएसलद्धा, इय-विण्णाण-पत्ता, पभू णं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवादं करत्तेए ?" “नो तिणढे समठे" ! __ “से केणठेणं, देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ-नो खलु पभू तुब्भे ममं धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए ?" श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 316 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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