________________ गोशालक—"श्रमण भगवान महावीर महाधर्मकथी हैं ?" सद्दालपुत्र—“आप यह किस अभिप्राय से कहते हैं कि श्रमण भगवान महावीर महाधर्मकथी हैं ?" गोशालक—'हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर इस विशाल संसार में भटकते हुए, पथभ्रष्ट, कुमार्गगामी, सन्मार्ग से भ्रष्ट, मिथ्यात्व में फँसे हुए तथा आठ प्रकार के कर्मरूपी अन्धकार से घिरे हुए प्राणियों को अनेक प्रकार की युक्तियों, उपदेशों यावत् व्याख्याओं द्वारा भयंकर अटवी के पार पहुंचाते हैं। इसी अभिप्राय से श्रमण भगवान महावीर महाधर्मकथी कहे जाते हैं। गोशालक—“क्या यहाँ (तुम्हारे पास) महानिर्यामक आए थे ?" सद्दालपुत्र-“हे देवानुप्रिय ! महानिर्यामक कौन हैं ?" गोशालक"श्रमण भगवान महावीर महानिर्यामक हैं ?" सद्दालपुत्र—“आप यह किस अभिप्राय से कहते हैं कि श्रमण भगवान महावीर महानिर्यामक हैं ?" गोशालक—“हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर संसाररूपी महासमुद्र में नष्ट होते हुए, विनष्ट होते हुए, डूबते हुए, गोते खाते हुए और बहते हुए बहुत से जीवों को धर्मरूपी नौका द्वारा निर्वाणरूपी तट पर ले जाते हैं। इसलिए श्रमण भगवान महावीर महानिर्यामक अथवा महाकर्णधार कहे जाते हैं।" टीका—“प्रस्तुत पाठ में गोशालक द्वारा की गई भगवान् महावीर की प्रशंसा का वर्णन है। उसने 'पाँच विशेषण दिये हैं और प्रत्येक विशेषण की व्याख्या करते हुए उसे महावीर के साथ घटाया है। वे विशेषण हैं महामाहन, महागोप, महासार्थवाह, महाधर्मकथी और महानिर्यामक / प्रत्येक की व्याख्या नीचे लिखे अनुसार है 1. महामाहन इसकी विस्तृत व्याख्या पहले आ चुकी है। इसी अध्ययन के प्रारम्भ में देव ने सद्दालपुत्र को महामाहन का वर्णन करते हुए कहा था कि वे उत्पन्न ज्ञान और दर्शन के धारक हैं। यहाँ उत्पन्न शब्द का अर्थ अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन है। क्योंकि साधारण ज्ञान और दर्शन प्रत्येक प्राणी में सदा रहते हैं। जैन दर्शन में ज्ञान के पाँच भेद है—मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल / इनमें से मति और श्रुत ज्ञान या अज्ञान रूप से प्रत्येक प्राणी में होते हैं। किन्तु अन्तिम तीन विशेष शुद्धि द्वारा किसी-किसी को ही होते हैं। अन्तिम केवलज्ञान सर्वोत्कृष्ट है। यहाँ उसी से अभिप्राय है। इसी प्रकार दर्शन के चार भेद हैं—चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन / यहाँ केवल दर्शन से अभिप्राय है। देव ने कहा था वे अतीत, वर्तमान और अनागत के ज्ञाता हैं। अरिहन्त हैं जिन हैं, केवली हैं, सर्वज्ञ-सर्वदशी हैं, त्रिलोक द्वारा वन्दित, पूजित तथा सेवित हैं। देव, मनुष्य तथा असुरों के वन्दनीय, अर्चनीय, पूजनीय, सम्मानीय कल्याण तथा मंगल रूप हैं / देवता स्वरूप हैं। उनके उपासनीय | . श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 317 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन श्री उपा