________________ अपरिजाणिज्जमाणे पीढ-फलग-सिज्जा-संथारट्ठयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुण-कित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी—“आगए णं, देवाणुप्पिया ! इहं महा-माहणे" ? // 216 // ___ छाया-ततः खलु स गोशालो मंखलिपुत्रः सद्दालपुत्रेण श्रमणोपासकेनानाद्रियमाणोऽपरिज्ञायमानः पीठ-फलक-शय्या-संस्तारार्थं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य गुण कीर्तनं कुर्वाणः सद्दालपुत्रं श्रमणोपासकमेवमवादीत्—“आगतः खलु देवानुप्रिय ! इह महामाहनः ?" __ शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, से गोसाले मंखलिपुत्ते—वह मंखलिपुत्र गोशाल, सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं श्रमणोपासक सद्दालपुत्र द्वारा, अणाढाइज्जमाणे अपरिजाणिज्जमाणे—बिना आदर तथा परिज्ञान प्राप्त किए, पीढ-फलग-सिज्जा-संथारट्ठयाए—पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान् महावीर का, गुण-कित्तणं करेमाणे-गुण कीर्तन करता हुआ, सद्दौलपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी—सद्दालपुत्र श्रमणोपासक को इस प्रकार बोला—आगए णं देवाणुप्पियां ! इहं महामाहणे हे देवानुप्रिय ! क्या यहां महामाहन आए थे ?" भावार्थ मंखलिपुत्र गोशाल को सद्दालपुत्र की ओर से कोई सन्मान-सत्कार या परिज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। फिर भी उसने पीठ, फलक शय्या तथा संस्तारक आदि प्राप्त करने के लिए पूछा-“क्या यहाँ महामाहन आए थे? . मूलम् तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासाए गोसालं मंखलिपुत्त एवं वयासी—“के णं, देवाणुप्पिया ! महामाहणे ?" || 217 // छाया ततः खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासको गोशालं मंखलिपुत्रमेवमवादीत्- 'कः खलु देवानुप्रिय ! महामाहनः ?" शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, से सद्दालपुत्ते समणोवासए—वह श्रमणोपासक सद्दालपुत्र, गोसालं मंखलिपुत्तं गोशाल मंखलिपुत्र से, एवं वयासी इस प्रकार बोला के णं देवाणुप्पिया ! महामाहणे? हे देवानुप्रिय ! महामाहन कौन हैं ? . भावार्थ श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से पूछा- "हे देवानुप्रिय ! महामाहन कौन हैं ? अर्थात आपका अभिप्राय किस से है ?" ___ मूलम् तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी–“समणे भगवं महावीरे महामाहणे"। “से केणट्टेणं, देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ–समणे भगवं महावीरे महामाहणे।" | . श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 311 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन /