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________________ आजीवियसमयं वमित्ता—आजीविक सिद्धान्त को त्यागकर, समणाणं निग्गंथाणं दिट्टिं पडिवन्ने श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता को अङ्गीकार कर लिया है, तं गच्छामि णं इसलिए मैं जाता हूँ और, सद्दालपुत्ते आजीविओवासयं—आजीविकोपासक सद्दालपुत्र को, समणाणं निग्गंथाणं दिट्टि वामेत्ता–श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता छुड़ाकर, पुणरवि—पुनः, आजीवियदिठिं गेण्हावित्तएआजीविक दृष्टि ग्रहण कराता हूं, त्ति कटु एवं संपेहेइ—उसने इस प्रकार विचार किया, संपेहित्ता विचार करके, आजीवियसंघसम्परिवुडे –आजीविक संघ के साथ, जेणेव पोलासपुरे नयरे—जहां पोलासपुर नगर था, जेणेव आजीवियसभा और जहाँ आजीविक सभा थी तेणेव उवागच्छइ वहाँ आया, उवागच्छित्ता-आकर, आजीवियसभाए—आजीविक सभा में, भण्डग निक्खेवं करेइ–भाण्ड-उपकरण रख दिए, करेत्ता ऐसा करके, कइवएहिं आजीविएहिं सद्धिं कुछ आजीविकों के साथ, जेणेव सद्दालपुत्ते समणोवासए—जहाँ सद्दालपुत्र श्रमणोपासक रहता था, तेणेव उवागच्छइ—वहाँ पहुँचा। भावार्थ कुछ दिन बीतने पर मंखलिपुत्र गोशालक ने यह समाचार सुना कि सद्दालपुत्र आजीविक सिद्धान्त को छोड़कर श्रमण निर्गन्थों का अनुयायी बन गया है। उसने मन ही मन विचार किया कि मुझे पोलासपुर जाकर सद्दालपुत्र को पुनः आजीविक सम्प्रदाय में लाना चाहिए। यह विचार कर आजीविक संघ के साथ वह पोलासपुर पहुंचा और आजीविक सभा में अपने भाण्डोपकरण रखकर कुछ आजीविकों के साथ सद्दालपुत्र श्रमणोपासक के पास आया। मूलम् तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परिजाणाइ, अणाढायमाणे, अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ // 215 // छाया : ततः खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासको गोशालं मंखलिपुत्रमायातं पश्यति, दृष्ट्वा नो आद्रियते, नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् तूष्णीकः सन् तिष्ठति। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से सद्दालपुत्ते समणोवासाए—उस श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने, गोसालं मंखलिपुत्तं एज्जमाणं पासइ-मंखलिपुत्र गोशाल को आते हुए देखा, पासित्ता–देखकर, नो आढाइ नो परिजाणाइ न तो आदर ही किया और न पहचाना, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणेबिना आदर किए तथा बिना पहचाने, तुसिणीए संचिट्ठइ—चुपचाप बैठा रहा। भावार्थ श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशाल को आते हुए देखा किन्तु न तो उसका आदर किया और न ही पहचाना (अपरिचित के समान उपेक्षा भाव रखा) अपितु चुपचाप बैठा रहा / मूलम्-तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइज्जमाणे श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 310 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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