SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावार्थ-श्रमण भगवान महावीर के धर्मोपदेश को सुनकर अग्निमित्रा भार्या अत्यन्त प्रसन्न हुई। उसने भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया और कहा हे भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूं। जिस तरह आप कहते हैं, यह उसी प्रकार है। आप देवानुप्रिय के पास जिस तरह बहुत से उग्रवंशी यावत् भोगवंशी प्रव्रजित-दीक्षित हो चुके हैं मैं उस प्रकार दीक्षित होने में समर्थ नहीं हूं। मैं आप से पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म को स्वीकार करूंगी।" भगवान् ने कहा--"जैसे तुम्हें सुख हो / विलम्ब मत करो।" मूलम् तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खा-वइयं दुवालस-विहं सावग-धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाण-प्पवरं दुरुहइ दुरुहित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया // 211 // छाया ततः खलु साऽग्निमित्रा भार्या श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पंचाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं श्रावकधर्मं प्रतिपद्यते। प्रतिपद्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्कृत्य तदेव धार्मिकं यानप्रवरं दूरोहति, दूरुह्य यामेव दिशं प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, सा अग्गिमित्ता भारिया—उस अग्निमित्रा भार्या ने, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए श्रमण भगवान् महावीर के पास, पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप, दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जइ–बारह प्रकार के श्रावक धर्म को ग्रहण किया, पडिवज्जित्ता ग्रहण करके, समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दना नमस्कार करके, तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ—उसी धार्मिक रथ पर सवार हुई, दुरुहित्ता सवार होकर, जामेव दिसं पाउब्भूया जिस दिशा से आई थी, तामेव दिसं पडिगया—उसी दिशा में चली गई। भावार्थ—उस अग्निमित्रा भार्या ने श्रमण भगवान महावीर के पास पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अङ्गीकार किया। श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार किया और उसी धार्मिक रथ पर सवार होकर जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में चली गई। मूलम् तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलास पुराओ नयराओ सहस्संबवणाओ, पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ // 212 // छाया–ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरोऽन्यदा कदाचित् पोलासपुरात् नगरात् सहस्राम्रवणात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहारं विहरति / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 308 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy