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________________ अग्गिमित्ताए अग्निमित्रा को, तीसे य जाव धम्मं कहेइ—उस महती परिषद् में यावत् धर्मोपदेश किया। भावार्थ श्रमण भगवान् महावीर ने अग्निमित्रा को उस महती परिषद् में धर्मोपदेश किया। मूलम् तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ-तुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी “सद्दहामि णं, भंते! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वयह, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा भवित्ता जाव अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त-सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धर्म पडिवज्जिस्सामि / " “अहासुहं, देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह" || 210 // छाया–ततः खलु सा अग्निमित्रा भार्या श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्ट-तुष्टा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्कृत्य एवमवादीत्-"श्रद्दधामि खलु भदन्त! नैर्ग्रन्थ्यं प्रवचनं यावत् तद् यथैतद् यूयं वदथ। यथा खलु देवानुप्रियाणामन्तिके बहव उग्रा भोगा यावत् प्रव्रजिताः, नो खल्वहं तथा शक्नोमि देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा भूत्वा यावद्, अहं खलु देवानुप्रियाणामन्तिके पञ्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं गृहि-धर्मं प्रतिपत्स्ये।" "यथा-सुखं देवानुप्रिये! मा प्रतिबन्धं कुरु / " शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, सा अग्गिमित्ता भारिया—वह अग्निमित्रा भार्या, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए श्रमण भगवान् महावीर के पास, धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठ-तुट्ठा—धर्मोपदेश सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुई और, समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ–श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोली—सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं हे भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करती हूं, जाव से जहेयं तुब्मे वयह—यावत् जैसे आप कहते हैं वह यथार्थ है, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए जिस प्रकार देवानुप्रिय के पास, बहवे उग्गा भोगा—बहुत से उग्रवंशी, भोगवंशी, जाव पव्वइया—यावत् प्रव्रजित-दीक्षित हुए हैं, नो खलु अहं तहा संचाएमि–मैं उस प्रकार समर्थ नहीं हूं कि, देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा भवित्ता देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो सकू, जाव अह णं यावत् मैं, देवाणुप्पियाणं अंतिए—देवानुप्रिय के पास, पंच्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं—पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षा व्रत रूप, दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामि बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अङ्गीकार करूंगी, अहासुहं देवाणुप्पिया ! हे देवानुप्रिये ! तुम्हें जिस तरह सुख हो, मा पडिबंधं करेह विलम्ब मत करो। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 307 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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