________________ यावत्तथ्य-कर्म सम्पदा सम्प्रयुक्तस्तत् श्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा नमस्कृत्य प्रातिहारिकेण पीठ-फलक यावदुपनिमन्त्रयितुम्” एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य उत्थायोत्तिष्ठति, उत्थित्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्कृत्य एवमवादीत्—“एवं खलु भदन्त! मम पोलासपुरानगराद् बहिः पञ्च कुम्भकारापणशतानि, तत्र खलु यूयं प्रातिहारिकं पीठं संस्तारकमवगृह्य विहरत / " . शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, समणेणं भगवया महावीरेणं श्रमण भगवान् महावीर के, एवं वुत्तस्स समाणस्स—इस प्रकार कहने पर, तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासयस्स—उस आजीविकोपासक सद्दालपुत्र के मन में, इमेयारूवे अज्झत्थिए ४—यह विचार उत्पन्न हुआ, एस णं समणे भगवं महावीरे—यह श्रमण भगवान् महावीर, महामाहणे महामाहन, उप्पन्नणाण-दंसणधरे—अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक, जाव तच्च-कम्म-संपया संपउत्ते—यावत् तथ्य-कर्म सम्पदा के स्वामी हैं, तं सेयं खलु ममं—इसलिए उचित है कि मैं, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान् महावीर को, वंदित्ता नमंसित्ता वन्दना नमस्कार करके, पाडिहारिएणं पीढ फलग जाव उवनिमंतित्तए प्रातिहारिक पीठ फलक आदि के लिए निमन्त्रित करूं। एवं संपेहेइ—उसने इस प्रकार विचार किया, संपेहित्ता उट्ठाए उढेइ–विचार कर उठा, उठ्ठित्ता—उठकर, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान महावीर को, वंदइ नमंसइ-वन्दना की, नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा, एवं खलु भंते! हे भगवन्!; पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया–पोलासपुर नगर के बाहर, ममं पंच कुंभकारावणसया मेरे कुम्हार सम्बन्धी पांच सौ आपण हैं, तत्थ णं तुब्भे—वहां से आप, पाडिहारियं—प्रातिहारिक पीठ, जाव संथारयं—पीठ यावत् संस्तारक आदि, ओगिण्हित्ता णं विहरह-ग्रहण करके विचरें। . भावार्थ श्रमण भगवान् की बात सुनकर आजीविकोपासक सद्दालपुत्र ने सोचा–“यह अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक यावत् सम्पदा और कर्म-सम्पदा के स्वामी श्रमण भगवान महावीर हैं। मुझे इन्हें वन्दना नमस्कार करके प्रातिहारिक पीठ फलक आदि के लिए निमन्त्रित करना चाहिए। यह विचार कर उठा, श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया और निवेदन किया हे भदन्त! पोलासपुर नगर के बाहर मेरे पांच सौ आपण हैं वहां से आप प्रातिहारिक पीठ यावत् संस्तारक ग्रहण करके मुझे अनुगृहित करें। __ मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमलैं पडिसुणेइ, पड़िसुणेत्ता सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचकुम्भकारावणसएसु फासुएसणिज्जं पाडिहारियं पीढफलग सिज्जा संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरइ // 164 // श्री उपासक दशाग सूत्रम् / 28 / सदालपुत्र पार म् / 265 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन