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________________ किय-सरीरे—अल्प भार वाले बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और, मणुस्सवग्गुरापरिगए जन समूह के साथ, साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ—अपने घर से निकला, पडिणिक्खभित्ता निकलकर, पोलासपुरं नगरं मज्झं-मज्झेणं निगच्छइ—पोलासपुर नगर के बीचों-बीच होता हुआ बाहर निकला, निग्गच्छित्ता निकलकर, जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे—जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, जेणेव समणे भगवं महावीरे—जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, तेणेव उवागच्छइ वहां आया, उवागच्छित्ता आकर, तिक्खुत्तो आयाहिणं-पयाहिणं करेइ दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, करेत्ता वंदइ नमसइ—प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासइ-वन्दना नमस्कार करके यावत् पर्युपासना की। ___भावार्थ-आजीविकोपासक सद्दालपुत्र ने इस वृत्तान्त को सुना कि श्रमण भगवन् महावीर यावत् विचर रहे हैं, उसके मन में आया “मैं जाता हूं और उन्हें वन्दना नमस्कार करता हूं यावत् पर्युपासना करता हूं।" इस प्रकार विचार करके स्नान किया यावत् कौतुक तथा मंगलाचार किये तथा सभा में जाने योग्य शुद्ध वस्त्र पहने / अल्प भार किन्तु बहुमूल्य आभूषणों द्वारा अपने शरीर को अलंकृत किया और जन समूह के साथ घर से निकलकर पोलासपुर नगर के बीचों-बीच होता हुआ सहस्राम्रवन उद्यान में भगवान् महावीर के पास पहुंचा। उन्हें वन्दना नमस्कार करके पर्युपासना करने लगा। मूलम् तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य महइ जाव धम्मकहा समत्ता // 161 // छाया-ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः सद्दालपुत्रस्याऽऽजीविकोपासकस्य तस्यां च महति यावद् धर्मकथा समाप्ता। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, समणे भगवं महावीरे श्रमण भगवान् महावीर ने, सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स—आजीविकोपासक सद्दालपुत्र, तीसे य महइ तथा उस विशाल परिषद् को (धर्म कथा सुनाई), जाव धम्मकहा समत्ता यावत् धर्म कथा समाप्त हुई। भावार्थ तब श्रमण भगवान् महावीर ने उस विशाल परिषद् में आजीविकोपासक सद्दालपुत्र को धर्मकथा कही यावत् वह समाप्त हो गई। - मूलम्—“सद्दालपुत्ता''! इ समणे भगवं महावीरे सद्दालुपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी–“से नूणं, सद्दालपुत्ता! कल्लं तुमं पुव्वावरण्ह कालसमयंसि जेणेव असोग-वणिया जाव विहरसि / तए णं तुब्भं एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था / तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने एवं वयासी "हंभो सद्दालपुत्ता!" तं चेव सव्वं जाव “पज्जुवासिस्सामि" | से नूणं, सद्दालपुत्ता! अढे समठे?" "हंता! अत्थि" | नो खलु, सद्दालपुत्ता! तेणं देवेणं गोसालं मंखलि-पुत्तं पणिहाय एवं वुत्ते" || 162 // | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 263 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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