________________ 7. सव्वण्णू (सर्वज्ञ) सब वस्तुओं को जानने वाले / 8. सव्वदरिसी—(सर्वदर्शी) सब वस्तुओं को देखने वाले / 6. तेलोक्कवहिय-महिए-पूइए—(त्रैलोक्यावहितमहितपूजित) तीनों लोकों के द्वारा अवहित, महित तथा पूजित / अवहित शब्द संस्कृत की धा धातु के साथ 'अव' उपसर्ग लगाने पर बना है। इसी से अवधान शब्द भी बनता है जिसका अर्थ है—ध्यान / अवहित का अर्थ है ध्यान अर्थात् तीनों लोकों के द्वारा जिनका ध्यान अथवा चिन्तन किया जाता है। महित का अर्थ है—'प्रतिष्ठित', अपनी महानता के लिए सर्व विदित। पूजित का अर्थ स्पष्ट है। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या नीचे लिखे अनुसार की है। त्रैलोक्येन त्रिलोकवासिना जनेन, 'वहिय त्ति' समग्रैश्वर्याधतिशयसन्दोहदर्शनसमाकुलचेतसा हर्षभरनिर्भ रेण प्रबलकुतूहलबलादनिमिष लोचनेनावलोकितः, 'महिय' त्ति सेव्यतया वाञ्छितः, पूजितः—पूजितश्च / 10. सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिजे....सम्माणणिज्जे–देव, मनुष्य तथा असुर सभी द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, सत्कार करने योग्य तथा सन्मान करने योग्य / प्राचीन समय में देव, मनुष्य और असुर सृष्टि के प्रधान एवं शक्तिशाली अङ्ग माने जाते थे। महापुरुष का वर्णन करते समय उसे तीनों का ही पूज्य बताया जाता था। 11. कल्लाणं—(कल्याण) कल्याण स्वरूप अर्थात् प्राणीमात्र के उद्धारक / 12. मंगलं—(मंगल) मंगल स्वरूप अर्थात् सच्चा सुख प्राप्त कराने वाले / 13. देवयं—(दैवत) दैवत का अर्थ है—अतिन्द्रिय तेज तथा शक्ति के धारक, साथ ही इष्ट देवता के रूप में पूजनीय। 14. चेइयं (चैत्य) इस शब्द के अनेक अर्थ किए जाते हैं। यहां इसका अर्थ है ज्ञानस्वरूप / यह संस्कृत की चिति-संज्ञाने धातु से बना है। चिञ्-चयने धातु से भी यह शब्द बनाया जाता है। जिसका अर्थ है—ईंटों का चिना हुआ चबूतरा / इसी से 'चिता' शब्द भी बनता है। किन्तु यहां यह अर्थ नहीं लिया जा सकता। 15. पज्जुवासणिज्जे—(पर्युपासनीय) यह शब्द आस्–उपवेशने धातु के साथ 'परि' तथा 'उप' उपसर्ग लगाने पर बना है। उपासनीय का अर्थ है—उपासना करने या पास में बैठने योग्य / परि का अर्थ है सब तरह से किसी महापुरुष के पास बैठना, उसकी संगति करना, उपासना कहा जाता है। जो व्यक्ति सब प्रकार से उपासना करने योग्य हो उसे पर्युपासनीय कहा जाता है। 16. तच्च-कम्म-संपया संपउत्ते—(तथ्यकर्म-सम्पदा-सम्प्रयुक्तः) यह विशेषण महत्वपूर्ण है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 286 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन