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________________ विशेषण मिलते हैं। माहन का शब्दार्थ है 'मत मारो'। भगवान महावीर सर्वत्र अहिंसा या ‘मत मारो' का उपदेश दिया करते थे। इसलिए उनका नाम 'माहन' या 'महामाहन' पड़ गया। कई स्थानों पर इसका अर्थ ब्राह्मण भी किया जाता है, जिसका अभिप्राय है 'ज्ञानी' / टीकाकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है—जो व्यक्ति स्वयं किसी को न मारने का निश्चय करता है, साथ ही दूसरों को न मारने का उपदेश भी देता है, जो सूक्ष्म तथा स्थूल समस्त जीवों की हिंसा से सदा के लिए निवृत्त है, वही महामाहन है (माहन्मि न हन्मीत्यर्थः, आत्मना व हननान्निवृत्तः परं प्रति ‘मा हन' इत्यैवमाचष्टे यः स माहनः, स एव मनः प्रभृतिकरणादिभिराजन्म सूक्ष्मादिभेदभिन्नजीवहनननिवृत्तत्वात् महान्माहनो महामाहनः)।" 2. उप्पन्ननाण-दसण-धरे—(उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन-धरः) अव्याहत ज्ञान और दर्शन के धारक / जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा अनन्त ज्ञान तथा अनन्त दर्शन से सम्पन्न है। किन्तु उनके यह गुण कर्मों के आवरण से दबे हुए हैं। कर्म-मल दूर होते ही वे अपने आप प्रकट हो जाते हैं। ज्ञान का अर्थ है—साकार या सविकल्पक बोध और दर्शन का अर्थ है—निराकार या निर्विकल्पक प्रतीति / भगवान महावीर को पूर्ण ज्ञान तथा पूर्ण दर्शन प्रकट हो चुका था। 3. तीय-पडुपन्न-मणागय-जाणए—(अतीत प्रत्युत्पन्नानागतज्ञाता) भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् तीनों कालों को जानने वाले। 4. अरहा—(अर्हत्) संस्कृत में ‘अर्ह' पूजायाम् धातु है, अतः अहर्तुं शब्द का अर्थ पूज्य है। इसका दूसरा अर्थ है 'योग्य'। इसका तीसरा अर्थ आरि अर्थात् ‘आत्म शत्रुओं को मारने वाला' भी किया जाता है। 5. जिणे (जिन) रागद्वेष को जीतने वाला। ई. पूर्व षष्ठी शताब्दी में जिन शब्द अत्यन्त प्रतिष्ठा का सूचक था। महावीर, गोशालक, जामाली, बुद्ध आदि धर्म-प्रवर्तकों के अनुयायी अपने-अपने शास्ताओं को जिन कहने में गौरव का अनुभव करते थे। इस विषय में उनका परस्पर विवाद भी चलता रहता था और प्रत्येक अनुयायी अपने उपास्य को जिन सिद्ध करने का प्रयत्न करता था। भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में लिखा है—“सावत्थीए णयरीए अजिणे जिणप्पलावी, अजिणे जिणसई पगासमाणे विहरइ” अर्थात् श्रावस्ती नगरी में गोशालक मंखलिपुत्र जिन न होता हुआ भी जिन, अर्हत्, केवली, सर्वज्ञ न होता हुआ भी अपने आपको अर्हत्, केवली, सर्वज्ञ कहता हुआ विचरता था। 6. केवली इसका अर्थ है केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के धारक / 'केवल' शब्द का अर्थ है—शुद्ध, मिश्रण से रहित / सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के विवेक को कैवल्य कहा गया है। जैन दर्शन के अनुसार कैवल्य ज्ञान का अर्थ है—विशुद्ध एवं विश्व जगत का पूर्ण ज्ञान / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 288 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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