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________________ आमंतित्ता बुलाकर, एवं वयासी इस प्रकार कहा जइ ताव अज्जो! हे आर्यो! यदि, गिहिणो गिहिमज्झावसंता णं घर में रहने वाले गृहस्थ भी, अन्नउत्थिए अन्य यूथियों को, अठेहि य–अर्थों से, हेऊहि य हेतुओं से, पसिणेहि य–प्रश्नों से, कारणेहि य—युक्तियों से, वागरणेहि य-और व्याख्याओं से, निप्पट्ठपसिणवागरणे करेंति–निरुत्तर कर सकते हैं तो, सक्का पुणाई अज्जो! हे आर्यो! तुम भी समर्थ हो, अतः, समणेहिं निग्गंथेहिं तुम श्रमण निर्ग्रन्थों को, दुवालसंगं गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं—जो द्वादशाङ्ग-गणिपिटक का अध्ययन करते हैं, अन्नउत्थिया–अन्य यूथिकों को, अट्टेहि य जाव निप्पट्ठपसिणवागरणा करित्तए—अर्थ से, हेतु से, यावत् युक्ति के द्वारा निरुत्तर करना। भावार्थ भगवान् महावीर ने कुण्डकौलिक को सम्बोधित करते हुए कहा—हे कुण्डकौलिक श्रमणोपासक! कल अशोकवनिका (वाटिका) में एक देव तुम्हारे पास आया था। उसने तुम्हारी नाम मुद्रा और उत्तरीय को उठाकर कहा यावत् भगवान् ने देव प्रकट होने से लेकर अन्तर्धान तक सारा वृत्तान्त कह सुनाया और उससे पूछा—कुण्डकौलिक! क्या यह ठीक है? हां भगवन्! यह ठीक है (कुण्डकौलिक ने उत्तर दिया) भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को सम्बोधित करके कहा—आर्यो! यदि घर में रहने वाला एक गृहस्थ भी विविध अर्थों, हेतुओं, युक्तियों एवं व्याख्याओं द्वारा अन्य-यूथिकों को निरुत्तर कर सकता है तो हे आर्यो! आप लोग तो समर्थ हैं। . द्वादशाङ्ग-गणिपिटक का अध्ययन करते हैं। आपको भी चाहिए कि इसी प्रकार अन्य यूथिकों को अर्थ, हेतु तथा युक्ति के द्वारा निरुत्तर करें। मूलम् तए णं समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स "तह" त्ति एयमढें विणएणं पडिसुणेति // 177 // छाया ततः खलु श्रमणा निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तथेति' एतमर्थं विनयेन प्रतिशृण्वन्ति। ___ शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, समणा निग्गंथा य—श्रमण निर्ग्रन्थ, निग्गंथीओ य—और निर्ग्रन्थिनियों ने, समणस्स भगवओ महावीरस्स श्रमण भगवान महावीर के, एयमटुं—इस कथन को, तहत्ति तथेति कहकर, विणएणं पडिसुणेति–विनयपूर्वक स्वीकार किया। भावार्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों ने श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन विनयपूर्वक स्वीकार किया। ___टीका पिछले चार सूत्रों में भगवान् महावीर के आगमन और उनके द्वारा कुण्डकौलिक की प्रशंसा का वर्णन है। इसमें कई बातें ध्यान देने योग्य हैं-- | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 278 / कुण्डकौलिक उपासक, षष्ठम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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