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________________ भगवान् द्वारा कुण्डकौलिक की प्रशंसा और साधु-साध्वियों को उद्बोधनमूलम्–“कुण्डकोलिया"! इ समणे भगवं महावीरे कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं वयासी—“से नूणं कुण्डकोलिया! कल्लं तुब्भ पुव्वावरण्हकाल-समयंसि असोग-वणियाए एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था / तए णं से देवे नाममुदं च तहेव जाव पडिगए / से नूणं कुण्डकोलिया! अढे समठे?" "हन्ता! अत्थि।" "तं धन्नेसि णं तुमं कुण्डकोलिया!" (जहा कामदेवो) “अज्जो'! इ समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतित्ता एवं वयासी—“जइ ताव, अज्जो! गिहिणो गिहिमज्झावसंता णं अन्न-उत्थिए अठेहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य निप्पट्ठ-पसिणवागरणे करेंति, सक्का पुणाई, अज्जो! समणेहिं निग्गंथेहिं दुवालसङ्गं गणि-पिडगं अहिज्जमाणेहिं अन्न-उत्थिया अद्वेहि य जाव निप्पट्ठ-पसिणवागरणा करित्तए" || 176 // छाया- "कुण्डकौलिक'! इति श्रमणो भगवान् महावीरः कुण्डकौलिकं श्रमणोपासकमेवमवादीत्—'अथ नूनं कुण्डकौलिक!' कल्ये तव पूर्वापराह्नकालसमये अशोकवनिकायामेको देवोऽन्तिके प्रादुरासीत् / ततः खलु स देवो नाम-मुद्रां च तथैव यावन्निर्गतः / स नूनं कुण्डकौलिक! 'अर्थः समर्थः? 'हन्तास्ति!' 'तद्धन्योऽसि खलु त्वं कुण्डकौलिक!' यथा कामदेवः / 'आर्याः' ! इति श्रमणो भगवान् महावीरः श्रमणान्निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थीश्चाऽऽमन्त्र्यैवमवादीत्—'यदि तावदार्याः! गृहिणो गृहमध्यावसन्तः खलु अन्ययूथिकान् अर्थेश्च हेतुभिश्च प्रश्नैश्च कारणैश्च व्याकरणैश्च निःस्पष्ट (निष्पिष्ट) प्रश्नव्याकरणान् कुर्वन्ति, शक्याः पुनरार्याः! श्रमणैर्निर्ग्रन्थैदिशाङ्गं गणिपिटकमधीयानैरन्ययूथिका अर्थेश्च यावन्निः स्पष्टप्रश्नव्याकरणाः कर्तुम् / ' शब्दार्थ-कुण्डकोलिया! हे कुण्डकौलिक! इ समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर ने, कुण्डकोलियं समणोवासयं—कुण्डकौलिक श्रमणोपासक को, एवं वयासी—इस प्रकार कहा—से नूणं कुण्डकोलिया! हे कुण्डकौलिक! कल्लं पुव्वावरण्ह कालसमयंसि—कल दोपहर के समय, असोगवणियाए—अशोक वनिका में, एगे देवे—एक देव, अंतियं तुम्हारे पास, पाउब्भवित्था प्रकट हुआ था, तए णं तदनन्तर, से देवे—उस देव ने, नाम मुदं च–नाम मुद्रिका उठाई, तहेव जाव पडिगए—उसी प्रकार सारा वृत्तान्त कहा यावत् चला गया, से नूणं कुण्डकोलिया! हे कुण्डकौलिक! अढे समठे?—क्या यह बात ठीक है? हंता अत्थि—हां भगवन् ठीक है, तं धन्नेसि णं तुम कुण्डकोलिया!, महावीर स्वामी ने कहा हे कुण्डकौलिक! तुम धन्य हो, जहा कामदेवो—इत्यादि कथन कामदेव की तरह समझना। अज्जो! हे आर्यो! इ समणे भगवं महावीरे—इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने, समणे निग्गंथे य—श्रमण निर्ग्रन्थ, निग्गंथीओ य—और निर्ग्रन्थियों को, | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 277 / कुण्डकौलिक उपासक, षष्ठम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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