________________ सुनकर कुण्डकौलिक ने देव से पूछा-आपको जो यह दैवी शक्ति तथा सम्पत्ति प्राप्त हुई है, क्या इसके लिए किसी प्रकार की तपस्या या धर्मानुष्ठान नहीं करना पड़ा? यदि ऐसा है, तो समस्त प्राणी तुम्हारे सरीखे देव क्यों नहीं बन गए? उनमें परस्पर भेद क्यों है? कोई सुखी है, कोई दुखी, कोई दुर्बल, कोई बलवान। कोई सम्पन्न, कोई दरिद्र! इस विषमता का एक मात्र कारण है—पुरुषार्थ / जिसने जैसा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम किया है उसने तदनुसार फल प्राप्त किया है। कुण्डकौलिक ने पुरुषार्थ के आधार पर कर्मवाद की ओर संकेत किया है। कुण्डकौलिक ने देव के समक्ष दो विकल्प उपस्थित किए और उससे पूछा-तुमने यह समृद्धि पुरुषार्थ आदि के द्वारा प्राप्त की है या उनके बिना? यदि उनके बिना, तो विश्व के समस्त जीव तुम्हारे सरीखे क्यों नहीं हैं? इसके विपरीत यदि पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त की है, तो महावीर का सिद्धान्त असमीचीन कैसे हो सकता है?" यहां टीकाकार के नीचे लिखे शब्द हैं ___ “ततोऽसौ कुण्डकोलिकः तं देवमेवमवादीत्—यदि गोशालकस्य सुन्दरो धर्मो, नास्ति कर्मादीत्यतो नियताः सर्वभावा इत्येवंरूपो, मंगुलश्च महावीरधर्मोऽस्ति कर्मादीत्यनियताः सर्वभावा इत्येवं स्वरूपः, तन्मतमनूध कुण्डकोलिकस्तन्मतदूषणाय विकल्पद्वयं कुर्वन्नाह—“तुमे णमित्यादि, पूर्ववाक्ये यदीति पदोपादानादेतस्य वाक्यस्यादौ तदेति पदं द्रष्टव्यं इति, त्वयायं दिव्यो-देवादिगुणः केन हेतुना लब्धः? किमुत्थानादिना 'उदाहु त्ति' अहोश्वित् अनुत्थानादिना?' तपोब्रह्मचर्यादीनामकरणेनेति भावः, यद्युत्थानादेरभावेनेति पक्षो गोशालकमताश्रितत्वाद् भवतः तदा येषां जीवानां नास्त्युत्थानादि तपश्चरणकरणमित्यर्थः, 'ते' इति जीवाः किं न देवाः? पृच्छतोऽयमभिप्रायः यथा त्वं पुरुषकारं बिना देवः संवृत्तः स्वकीयाभ्युपगमतः एवं सर्वजीवा ये उत्थानादिवर्जितास्ते देवाः प्राप्नुवन्ति, न चैतदेवमिष्टमित्युत्थानाद्यपलापपक्षे दूषणम् / अथ त्वयेयं ऋद्धिरुत्थानादिना लब्धा ततो यद्वदसि—सुन्दरा गोशालक-प्रज्ञप्तिरसुन्दरा महावीरप्रज्ञप्तिः इति, तत्ते तव मिथ्यावचनं भवति, तस्य व्यभिचारादिति / " ... देव का निरुत्तर होकर वापिस लौटना- मूलम् तए णं से देवे कुण्डकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए जाव कलुससमावन्ने नो संचाएइ कुण्डकोलियस्स समणोवासयस्स किंचि पामोक्खमाइक्खित्तए: नाम-मुद्दयं च उत्तरिज्जयं च पुढवि-सिलापट्टए ठवेइ, ठवित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए॥ 173 // | ___छाया ततः खलु स देवः कुण्डकौलिकश्रमणोपासकेनैवमुक्तः सन् शङ्कितो यावत् कलुषसमापन्नो नो शक्नोति कुण्डकौलिकस्य श्रमणोपासकस्य किञ्चित् प्रातिमुख्यमाख्यातुम् / नाम-मुद्रिकां चोत्तरीयकं च पृथ्वी-शिला-पट्टके स्थापयति, स्थापयित्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः / श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 275 / कुण्डकौलिक उपासक, षष्ठम अध्ययन /