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________________ उठाणे इ वा, जाव नियया सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ती-अस्थि उट्ठाणे इ वा, जाव अणियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा'' // 172 // छाया–ततः खलु स कुण्डकौलिकः श्रमणोपासकस्तं देवमेवमवादीत्–“यदि खलु देव! त्वयेयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धिरनुत्थानेन यावद् अपुरुषकारपराक्रमेण लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता? येषां खलु जीवानां नास्त्युत्थानमिति वा, यावत् पराक्रम इति वा, ते किं न देवाः? अथ खलु देव! त्वयेयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धिरुत्थानेन यावत्पराक्रमेण लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता, ततो यद्वदसि-सुन्दरी खलु गोशालस्य मङ्खलिपुत्रस्य धर्म-प्रज्ञप्तिः, नास्त्युत्थानमिति वा यावन्नियताः सर्वभावाः, मंगुली खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य धर्म-प्रज्ञप्तिः अस्त्युत्थानमिति वा, यावदनियताः सर्वभावास्तत्ते मिथ्या।" | शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से कुण्डकोलिए समणोवासए—वह कुण्डकौलिक श्रमणोपासक, तं देवं—उस देव को, एवं वयासी—इस प्रकार बोला—जइ णं देवा! हे देव! यदि, तुमे इमा एयारूवा तुम्हें यह इस प्रकार की, दिव्वा देविड्डी—अलौकिक देव ऋद्धि, अणुट्ठाणेणं-उत्थान, जाव अपुरिसक्कार-परक्कमेणं यावत् अपुरुषकार पसक्रम के बिना ही, लद्धा मिली है, पत्ता प्राप्त हुई है, अभिसमन्नागया—आई है, तो, जेसिं णं जीवाणं-जिन जीवों के, नत्थि नहीं है, उट्ठाणे इ वाउत्थान, परक्कमेइ वा अथवा पराक्रम, ते किं न देवा–वे देव क्यों नहीं बने ? अह णं देवा ! हे देव चूंकि, तुमे तुमने, इमा एयारूवा–यह इस प्रकार की,. दिव्वा देविड्डी—अलौकिक देवर्द्धि, उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं उत्थान यावत् पराक्रम से, लद्धा, पत्ता–लब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्नागया तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हुई है, तो जं वंदसि—जो तू कहता है कि, सुन्दरी णं गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती–गोशाल मंखलिपुत्र की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर है, क्योंकि उसमें, नत्थि उट्ठाणे इ वा—उत्थान नहीं है, जाव—यावत्, नियया सव्वभावा-सब भाव नियत हैं, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती–श्रमण भगवान महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति असुन्दर है क्योंकि उस में, अत्थि उट्ठाणे इ वा–उत्थान है, जाव अणियया सव्वभावा—यावत् सब भाव अनियत हैं, तं ते मिच्छा तो तेरा यह कथन मिथ्या है। भावार्थ कुण्डकौलिक श्रमणोपासक ने उस देव से पुनः पूछा-'हे देव! यदि तुम्हें इस प्रकार की अलौकिक देव ऋद्धि उत्थान यावत् पुरुषकार-पराक्रम के बिना ही मिली है, तो जिन जीवों के उत्थान यावत् पराक्रम नहीं है तो वे देव क्यों न बने? हे देव! यदि तू ने यह ऋद्धि उत्थान यावत् पराक्रम से प्राप्त की है, तो तुम्हारा यह कथन मिथ्या है कि मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति समीचीन है और श्रमण भगवान् महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति समीचीन नहीं है। टीका देव द्वारा की गई महावीर के सिद्धान्त की निन्दा तथा गोशालक के सिद्धान्त की प्रशंसा श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 274 / कुण्डकौलिक उपासक, षष्ठम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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