________________ 2. कर्म—क्रिया, जाना-आना, हाथ-पैर हिलाना आदि शारीरिक व्यापार / 3. बल—शारीरिक शक्ति। 4. वीर्य—आत्म-बल अर्थात् हिम्मत न हारना, उत्साह को स्थिर रखना। 5. पुरुषकार—पुरुषत्व का अभिमान, संकटों के सामने पराजित न होना, कठिनाइयां आने पर भी हार न मानना। 6. पराक्रम सफलता प्राप्त करने की शक्ति। कुण्डकौलिक का उत्तर और देव का पराजित होनामूलम् तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी “जइ णं देवा! सुन्दरी गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती, नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती, अस्थि उट्ठाणे ई वा जाव अणियया सव्वभावा / तुमे णं देवा ! इमा एयारूवा दिव्वा देविड्ढी, दिव्वा देवज्जुई, दिव्वे देवाणुभावे किणा लद्धे, किणा पत्ते, किणा अभिसमन्नागए ? किं उट्ठाणेणं जाव पुरिसक्कारपरक्कमेणं? उदाहु अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं?" || 170 // छाया ततः खलु स कुण्डकौलिकः श्रमणोपासकस्तं देवमेवमवादीत्–“यदि खलु देव! सुन्दरी गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य धर्मप्रज्ञप्तिः–नास्त्युत्थानमिति वा यावन्नियताः सर्वभावाः, मंगुली खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य धर्मप्रज्ञप्तिः—अस्त्युत्थानमिति वा यावदनियताः सर्वभावाः / त्वया खलु देवानुप्रिय ! इयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धिः, दिव्या देवधुतिः, दिव्यो देवानुभावः केन लब्धः ? केन प्राप्तः, केनाभि समन्वागतः ? किमुत्थानेन यावत्पुरुषकारपराक्रमेण? उताहो! अनुत्थानेनाऽकर्मणा यावदपुरुषकार पराक्रमेण?" शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से कुण्डकोलिए समणोवासए—वह कुण्डकौलिक श्रमणोपासक, तं देवं—उस देव को एवं वयासी इस प्रकार बोला—जइ णं देवा! हे देव! यदि, सुन्दरी गोसालस्स मंखली-पुत्तस्स धम्म-पण्णत्ती–मंखलीपुत्र गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति समीचीन है, नत्थि उट्ठाणे इ वा—क्योंकि इसमें उत्थान नहीं है, जाव नियया सव्वभावा—यावत् सर्वभाव नियत हैं, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ती तथा श्रमण भगवान महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति असमीचीन है। अत्थि उट्ठाणे इ वा क्योंकि उसमें उत्थान है, जाव अणियया सव्वभावा—यावत् सब भाव अनियत हैं, तुमे णं देवा! हे देव! तुम्हें, इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी इस प्रकार की दिव्य दैवी सम्पत्ति, दिव्वा देवज्जुई—दिव्य कान्ति, दिव्वे देवाणुभावे दिव्य अनुभाव (अलौकिक प्रभाव), किणा श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 272 / कुण्डकौलिक उपासक, षष्ठम अध्ययन /