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________________ कुण्डकोलिया! समणोवासया! हे कुण्डकौलिक ! श्रमणोपासक!, सुन्दरी णं देवाणुप्पिया! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती हे देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर हैं, नत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा—(उसमें) उत्थान, कर्म, बल, (शारीरिक शक्ति), वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा–वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम स्वीकार नहीं किया गया, नियया सव्वभावा—अर्थात् विश्व के समस्त परिवर्तन नियत अर्थात निश्चित हैं, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपणत्ती–श्रमण भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति मिथ्या है। अत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा—क्योंकि उसमें उत्थान और पराक्रमादि को स्वीकार किया गया है। अणियया सव्वभावा-वहां सब भाव अनियत हैं। भावार्थ उस देव ने नामांकित मुद्रिका और उत्तरीय वस्त्र को शिलापट पर से उठा लिया और धुंघरु बजाते हुए आकाश में उड़कर कुण्डकौलिक से कहने लगा- "हे कुण्डकौलिक श्रावक! देवानुप्रिय मंखलिपुत्र गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर है। उसमें उत्थान (कर्म के लिए उद्यत होना) कर्म (गमनादि क्रियाएं) बल (शारीरिक बल) वीर्य (आत्मतेज) पुरुषकार (पौरुष) तथा पराक्रम को स्वीकार नहीं किया गया। विश्व के समस्त परिवर्तन नियत हैं अर्थात् जो कुछ होना है होकर रहेगा। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इसके विपरीत श्रमण भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति असुन्दर अथवा मिथ्या है। उसमें उत्थान पराक्रमादि को स्वीकार किया गया है तथा जगत के परिवर्तन अनियत हैं अर्थात् पुरुषार्थ आदि के द्वारा उनमें परिवर्तन किया जा सकता है।" टीका–पिछले पांच अध्ययनों की अपेक्षा प्रस्तुत कुण्डकौलिक-अध्ययन भिन्न प्रकार का है। इसमें देवता उपसर्ग उपस्थित नहीं करता किन्तु कुण्डकौलिक के सामने भिन्न धार्मिक परम्परा का प्रतिपादन करता है, जो महावीर के समय अत्यन्त प्रचलित थी और उसके अनुयायियों की संख्या महावीर से भी अधिक थी। प्रस्तुत सूत्र में दोनों का परस्पर भेद दिखाया गया है। गोशालक नियतिवादी था। उसके मत में विश्व के समस्त परिवर्तन नियत अर्थात् निश्चित हैं। उन्हें कोई बदल नहीं सकता। प्रत्येक जीव को 84 लाख योनियों में घूमना पड़ेगा और उसके पश्चात् अपने-आप मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। इन योनियों में जो सुख-दुख हैं वे भोगने ही पड़ेंगे। कोई व्यक्ति अपने पुरुषार्थ, पराक्रम द्वारा उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता। अतः समस्त साधनाएं, तपस्याएं तथा भाग-दौड़ व्यर्थ हैं। इस मत का दूसरा नाम आजीविक भी है और इसका उल्लेख अशोक की धर्मलिपियों में मिलता है, तत्पश्चात् सम्प्रदाय के रूप में उल्लेख न मिलने पर भी भारतीय जीवन पर उसका प्रभाव अब भी अक्षुण्ण है। अब भी इस देश में पुरुषार्थ छोड़कर भाग्य के भरोसे बैठे रहने वालों की संख्या कम नहीं है। मलूकदास का नीचे लिखा दोहा साधु संन्यासी तथा फकीरों में ही नहीं, गृहस्थों में भी घर किए हुए है— श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 270 / कुण्डकौलिक उपासक, षष्ठम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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