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________________ भावार्थ—उपक्षेप पूर्ववत् है। हे जम्बू! उस काल और उस समय काम्पिल्यपुर नगर था। उस नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक रमणीय उद्यान था। वहां पर जितशत्रु राजा राज्य करता था। उस नगर में कुण्डकौलिक नामक प्रसिद्ध गाथापति था। उस गाथापति की पूषा नामक धर्मपत्नी थी। कुण्डकौलिक के पास छह करोड़ सुवर्ण मुद्राएं कोष में सुरक्षित थीं, छह करोड़ सुवर्ण मुद्राएं व्यापार में लगी हुई थीं और छह करोड़ घर तथा गृहोपकरण में प्रयुक्त थीं। उस गाथापति के पास छह व्रज पश-धन था। उसी काल और समय में श्रमण भगवान महावीर ग्रामानग्राम धर्मोपदेश देते हए. काम्पिल्यपुर नगर के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे। आनंद गाथापति के समान कुण्डकौलिक भी भगवान् का धर्मोपदेश श्रवण करने के लिए गया। फलस्वरूप उसने भी द्वादश व्रतरूप गृहस्थधर्म अंगीकार किया। यावत् श्रमण-निर्ग्रन्थों को आहार-पानी बहराते हुए सेवा-भक्ति से अपना जीवन यापन करने लगा। ___कुण्डकौलिक द्वारा अशोकवनिका में धर्मानुष्ठान मूलम् तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइ पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया, जेणेव पुढवि-सिला-पट्टए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाम-मुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढवि-सिला-पट्टए ठवेइ, ठवित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ // 167 // छाया ततः खलु स कुण्डकौलिकः श्रमणोपासकोऽन्यदा कदाचित्पूर्वापराह्नकालसमये येनैवाऽशोकवनिका येनैव पृथिवी-शिला-पट्टकस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य नाममुद्रिकां चोत्तरीयकं च पृथिवी-शिला-पट्टके स्थापयति, स्थापयित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुसम्पद्य विहरति / शब्दार्थ तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइ तदनन्तर वह कुण्डकौलिक श्रमणोपासक अन्य किसी दिन, पुव्वावरण्हकालसमयंसि—मध्याह्नकाल के समय, जेणेव असोगवणिया—जहां अशोक-वनिका थी, जेणेव पुढविसिलापट्टए—जहां पृथ्वी-शिला-पट्ट था, तेणेव उवागच्छइ—वहां पर आया, उवागच्छित्ता—आकर, नाम मुद्दगं च नामाङ्कित मुद्रिका (अंगूठी) तथा, उत्तरिज्जगं च–उत्तरीय अर्थात् दुपट्टे को, पुढविसिलापट्टए ठवेइ—पृथ्वी शिला पट्ट पर रखा, ठवित्ता—रख करके, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं श्रमण भगवान् महावीर के पास स्वीकार की हुई, धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ–धर्मप्रज्ञप्ति को अङ्गीकार करके विचरने लगा। भावार्थ तत्पश्चात् किसी दिन कुण्डकौलिक श्रमणोपासक मध्याह्न के समय अशोकवनिका (वाटिका) में गया, वहां पृथ्वी-शिला-पट्ट पर अपने नाम से अङ्कित हाथ की अंगूठी और ऊपर ओढ़ने श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 268 | कुण्डकौलिक उपासक, षष्ठम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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