________________ तृतीयमप्येवमुक्तस्य सतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः ४–“अहो! खल्वयं पुरुषोऽनार्यो यथा चुलनीपिता तथा चिन्तयति, यावत्कनीयांसं यावदासिञ्चति, या अपि च खलु इमा मम षड् हिरण्यकोटयो निधानप्रयुक्ताः षड् वृद्धिप्रयुक्ताः षड् प्रविस्तरप्रयुक्तास्ता अपि च खलु इच्छति मम स्वस्माद् गृहान्नीत्वाऽलभिकाया नगर्याः शृङ्गाटक यावद् विप्रकिरितुं तच्छ्रेयः खलु ममैतं पुरुषं ग्रहीतुमिति" कृत्वोथितो यथा सुरादेवः / तथैव भार्या पृच्छति तथैव कथयति / शब्दार्थ तए णं तस्स चुल्लसयस्स समणोवासयस्स तदनन्तर उस चुल्लशतक श्रमणोपासक को, तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्तस्स समाणस्स—उस देव द्वारा दूसरी तथा तीसरी बार इस प्रकार कहे जाने पर, अयमेयारूवे अज्झत्थिए—इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए—अहो णं इमे पुरिसे अणारिए अहो! यह पुरुष अनार्य है, जहा चुलणीपिया तहा चिंतेइ-चुलनीपिता के समान वह भी विचार करने लगा, जाव कणीयसं जाव आयंचइ—यावत् कनिष्ठ पुत्र के खून से भी मुझे सींचा, जाओ वि य णं और जो यह, ममं मेरी, छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ छ वुड्डिपउत्ताओ छ पवित्थर पउत्ताओ—छः करोड़ सुवर्ण मुद्राएं कोष में हैं, छः करोड़ व्यापार में लगी हुई हैं और छ: करोड़ गृह तथा उपकरणों में लगी हुई हैं, ताओ वि य णं इच्छइ ममं साओ गिहाओ नीणेत्ता–उन सबको भी यह मेरे घर से निकालकर, आलभियाए नयरीए सिंघाडग जाव विपइरित्तए—आलभिका नगरी में चौराहों पर यावत् बिखेरना चाहता है, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए तो मेरे लिए यही उचित है कि इस पुरुष को पकड़ लूं, त्ति कटु–ऐसा विचार करके, उद्धाइए—उठा, जहा सुरादेवो सुरादेव के समान (उसके साथ भी हुआ), तहेव भारिया पुच्छइ—उसी प्रकार से पत्नी ने पूछा, तहेव कहेइ—उसने भी उसी प्रकार उत्तर दिया। भावार्थ चुल्लशतकं देव द्वारा दूसरी तथा तीसरी बार कहे जाने पर सोचने लगा—“यावत् यह पुरुष अनार्य है। यावत् इसने मेरे कनिष्ठ पुत्र को मार कर मेरे शरीर को रुधिर और मांस में सींचा है! और अब मेरी जो छः करोड़ सुवर्ण मुद्राएं कोष में हैं, छः करोड़ व्यापार में लगी हुई हैं और छः करोड़ घर तथा सामान में लगी हुई हैं, आज यह उन्हें भी चौराहों पर बिखेरना चाहता है। अतः इसको पकड़ लेना ही उचित है।" यह सोचकर उसने भी सुरादेव की भांति किया, उसकी भार्या ने उसी प्रकार उससे कोलाहल का कारण पूछा। उसने भी सब वृत्तान्त उसी प्रकार अपनी पत्नी को कहा। उपसंहारमूलम् सेसं जहा चुलणीपियस्स जाव सोहम्मे कप्पे अरुणसिट्टे विमाणे उववन्ने / चत्तारि पलिओवमाई ठिई। सेसं तहेव जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्खेवो॥ 162 // || सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं पञ्चमं चुल्लसयगज्झयणं समत्तं // | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 265 / चुल्लशतक उपासक, पञ्चम अध्ययन |