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________________ जम्बू! उस काल उस समय आलभिका नाम की नगरी थी। वहां शंखवन उद्यान था, जितशत्रु राजा राज्य करता था और चुल्लशतक नामक गाथापति था, वह अति समृद्ध यावत् अपरिभूत था। उसकी छ: करोड़ सुवर्ण मुद्राएं कोष में थीं, छ: करोड़ व्यापार में लगी हुई थीं, और छः करोड़ घर तथा सामान में। दस हजार गायों के प्रत्येक व्रज के गणित से छः व्रज अर्थात् 60 हजार पशु-धन था। बहुला भार्या थी। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान महावीर वहां आलभिका नगरी में पधारे / आनन्द के समान उसने भी गृहस्थ-धर्म को स्वीकार किया। यावत् कामदेव के समान धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार करके विचरने लगा। पिशाच का उपद्रव मूलम् तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि एगे देवे अंतियं जाव असिं गहाय एवं वयासी—“हंभो! चुल्लसयगा ! समणोवासया! जाव न भंजसि तो ते अज्ज जेठे पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि / एवं जहा चुलणीपियं, नवरं एक्के-क्के सत्त मंससोल्लया जाव कणीयसं जाव आयंचामि" || 156 // तए णं से चुल्लसयए समणोवासए जाव विहरइ // 160 // छाया ततः खलु तस्य चुल्लशतकस्य श्रमणोपासकस्य पूर्वरात्रापरत्र कालसमये एको देवोऽन्तिकं यावदसिं गृहीत्वैवमवादीत्–“हंभो चुल्लशतक! श्रमणोपासक! यावन्न भनक्षि तर्हि तेऽद्य ज्येष्ठं पुत्रं स्वस्माद् गृहान्नयामि, एवं यथा चुलनीपितरं, नवरमेकैकस्मिन् सप्त मांसशूल्यकानि यावत्कनीयांसं यावदासिञ्चामि। ततः खलु स चुल्लशतकः श्रमणोपासको यावद्विहरति। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस अंतियं—उस चुल्लशतक श्रमणोपसक के पास, पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि—अर्धरात्रि में, एगे देवे—एक देवता, जाव असिं गहाय यावत् तलवार (हाथ में लेकर), एवं वयासी इस प्रकार बोला--हं भो चुल्लसयगा समणोवासया! अरे चुल्लशतक श्रमणोपासक! जाव न भंजसि—यावत् तू यदि शीलादि व्रतों को नहीं छोड़ेगा, तो ते तो तेरे, अज्ज जेठं पुत्तं—आज तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को, साओ गिहाओ अपने घर से, नीणेमि–निकाल लाता हूं, एवं जहा चुलणीपियं—इस प्रकार चुलनीपिता के समान (करता है), नवरं एक्के-क्के सत्त मंस सोल्लया विशेष यही है कि यहां एक-एक के सात-सात मांस खंड किए, जाव कणीयसं जाव आयंचामि—यावत् कनिष्ठ पुत्र के रुधिर और मांस से छीदूंगा। तए णं से चुल्लसयए समणोवासए तदनन्तर चुल्लशतक श्रमणोपासक, जाव—यावत्, विहरइ शान्त एवं ध्यान में स्थिर रहा / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 262 / चुल्लशतक उपासक, पञ्चम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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