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________________ रोगातङ्कान् प्रक्षिपामि, तद्यथा-श्वासः, कासो यावत्कुष्टम्, यथा खलु त्वमार्त्त दुखात यावद्व्यपरोपयिष्यसि।" शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे—वह देव, सुरादेवं समणोवासयं सुरादेव श्रमणोपासक को, चउत्थंपि एवं वयासी–चौथी बार भी इस प्रकार कहने लगा—हं भो सुरादेवा ! समणोवासया!अरे सुरादेव! श्रमणोपासक! अपत्थियपत्थया अनिष्ट की कामना करने वाले, जाव यावत्, न परिच्चयसि यदि शीलादि व्रतों को नहीं छोड़ता, तो ते तो तेरे, अज्ज सरीरंसि—शरीर में आज, जमगसमगमेव सोलस—एक साथ ही सोलह, रोगायंके पक्खिवामि—रोग और आतंक को डालता हूं, तं जहा—जैसे कि, सासे कासे—श्वास, खांसी, जाव यावत्, कोढे—कोढ़। जहा णं तुमं—जिससे तू, अट्ट दुहट्ट जाव ववरोविज्जसि—आर्त, दुखी तथा विवश होता हुआ यावत् अकाल में मारा जाएगा। भावार्थ तदनन्तर वह देव सुरादेव श्रमणोपासक को चौथी बार इस प्रकार कहने लगा-"अरे सुरादेव! अनिष्ट के कामी! यावत् यदि तू शीलादि व्रतों को भंग नहीं करेगा तो आज तेरे शरीर में एक साथ सोलह रोगों को डालता हूं, जैसे श्वास, खांसी यावत् कोढ़ जिससे तू आर्त, दुखी, विवश होकर अकाल में ही मर जाएगा।" - मूलम् तए णं से सुरादेवे समणोवासए जाव विहरइ / एवं देवो दोच्चंपि तच्चंपि भणइ, जाव ववरोविज्जसि // 154 // छाया–ततः खलु स सुरादेवः श्रमणोपासको यावद्विहरति / एवं देवो द्वितीयमपि तृतीयमपि भणति, यावद् व्यपरोपयिष्यसे / / शब्दार्थ तए णं से सुरादेवे समणोवासए—तदनन्तर वह सुरादेव श्रमणोपासक, जाव विहरइ यावत् धर्म-ध्यान में स्थिर रहा, एवं देवो दोच्चंपि तच्चंपि—देव ने दूसरी और तीसरी बार उसी प्रकार, भणइ–कहा, जाव ववरोविज्जसि—यावत् मारा जाएगा। भावार्थ—सुरादेव श्रमणोपासक फिर भी धर्म ध्यान में स्थिर रहा। देव ने दूसरी और तीसरी बार भी उसी प्रकार कहा—यावत् मारा जाएगा। सुरादेव का विचलित होना और पिशाच को पकड़ने का प्रयल__ मूलम् तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्तस्स समाणस्स, इमेयारूवे अज्झथिए ४–“अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जाव समायरइ, जेणं ममं जेटुं पुत्तं जाव कणीयसं जाव आयंचइ, जे वि य इमे सोलस रोगायंका, ते वि य इच्छइ मम सरीरगंसि पक्खिवित्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं - श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 257 / सुरादेव उपासक, चतुर्थ अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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