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________________ अंतियं—पास, पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि–अर्धरात्रि के समय, एगे देवे पाउब्भवित्था—एक देव प्रकट हुआ, से देवे—वह देव, एगं महं—एक बड़ी, नीलुप्पल जाव असिं गहाय नील कमल के समान यावत् तलवार लेकर, सुरादेवं समणोवासयं—सुरादेव श्रमणोपासक से, एवं वयासी—इस प्रकार कहने लगा—हं भो सुरादेवा समणोवासया! अरे सुरादेव श्रमणोपासक! अपत्थियपत्थया! अनिष्ट को चाहने वाले! जइ णं—यदि, तुमं—तू, सीलाई जाव न भंजेसि—शीलादि व्रतों को यावत् नहीं छोड़ेगा, तो ते जेट्टं पुत्तं तो तेरे बड़े पुत्र को, साओ गिहाओ नीणेमि—अपने घर से लाता हूं, नीणेत्ता–लाकर, तव अग्गओ घाएमि—तुम्हारे सामने मारता हूं, घाएत्ता—मारकर, पंच सोल्लए करेमि—पाँच टुकड़े करूंगा, करित्ता—करके, आदाण भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि–तेल से भरे हुए कड़ाह में तलता हूं, अद्दहेत्ता तलकर, तव गायं तेरे शरीर को, मंसेण य—मांस और, सोणिएण य–रुधिर से, आयंचामि–छींटूंगा, जहा णं तुमं—जिससे तू, अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि—अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होगा। एवं मज्झिमयं कणीयसं—इस प्रकार मंझले तथा कनिष्ठ पुत्र के, एक्के-क्के पंच सोल्लया-एक-एक के पाँच-पाँच मांस खण्ड, तहेव करेइ—उसी प्रकार किए, जहा चुलणीपियस्स—जैसे चुलनीपिता के। नवरं एक्के-क्के पंच सोल्लया इतना ही भेद है यहाँ एक-एक के पाँच-पाँच मांस खण्ड किए। - भावार्थ सुरादेव श्रमणोपासक के पास अर्धरात्रि के समय एक देव हाथ में नीली तलवार लेकर बोला—“अरे सुरादेव! श्रमणोपासक! अनिष्ट के कामी! यदि तू शीलादिं व्रतों का त्याग नहीं करता तो मैं तेरे बड़े पुत्र को घर से लाकर तेरे सामने मारता हूं। उसके शरीर के पांच टुकड़े करके तेल से भरे हुए कड़ाहे में तलता हूं, तथा तेरे शरीर को उसके मांस और रुधिर से छींटूंगा जिससे तू अकाल में ही जीवन से रहित हो जाएगा!" यावत् पिशाच ने वैसा ही किया। इसी प्रकार मंझले तथा कनिष्ठ पुत्र के साथ किया। चुलनीपिता के समान उनके शरीर के टुकड़े किए। विशेष बात यही है कि यहां पर एक-एक के पांच-पांच टुकड़े किए हैं। सुरादेव के शरीर में 16 रोग उत्पन्न करने की धमकी मूलम् तए णं से देवे सुरादेवं समणोवासयं चउत्थं पि एवं वयासी—“हंभो! सुरादेवा ! समणोवासया! अपत्थियपत्थया ! 4 जाव न परिच्चयसि, तो ते अज्ज सरीरंसि जमग-समगमेव सोलस रोगायंके पक्खिवामि, तं जहा—सासे, कासे जाव कोढे, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट जाव ववरोविज्जसि" // 153 // छाया ततः खलु स देवः सुरादेवं श्रमणोपासकं चतुर्थमप्येवमवादीत्—“हंभो! सुरादेव! श्रमणोपासक! अप्रार्थित प्रार्थक! यावनपरित्यजसि तर्हि तेऽद्य शरीरे यमक-समकमेव षोडश श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 256 / सुरादेव उपासक, चतुर्थ अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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