________________ महावीर स्वामी के समीप स्वीकृत, धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ—धर्मप्रज्ञप्ति को ग्रहण करके विचरने लगा। . भावार्थ अब चतुर्थ अध्ययन का आरम्भ होता है। सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी के उत्तर में इस प्रकार कहते हैं कि हे जम्बू! उस काल और उस ही समय वाराणसी नाम की नगरी थी। वहां कोष्ठक नामक चैत्य था। जितशत्रु राजा था। सुरादेव गाथापति था जो अतीव समृद्ध था / उसकी धन्या नाम की पत्नी थी। उसके पास छः करोड़ सुवर्ण कोष में जमा थे, छः करोड़ व्यापार में लगे हुए थे और छः करोड़ सामान में। प्रत्येक व्रज में दस हजार गायों के हिसाब से ऐसे छः व्रज थे अर्थात् 60 हजार पशु-धन था। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् महावीर वाराणसी आए और कोष्ठक उद्यान में ठहर गए। सुरादेव भी आनन्द के समान दर्शनार्थ आया और गृहस्थधर्म स्वीकार करके उसका पालन करने लगा। समय बीतने पर उसने भी कामदेव के समान पौषधोपवास किया और भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्मप्रज्ञप्ति के अनुसार जीवन बिताने लगा। _ पिशाच का उपद्रवमूलम् तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था, से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय सुरादेवं समणोवासयं एवं वयासी_"हंभो सुरादेवा समणोवासया! अपत्थियपत्थया! 4, जइ णं तुमं सीलाई जाव न भंजेसि, तो ते जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएत्ता पंच सोल्लए करेमि, करित्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, * जहाणं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।" एवं मज्झिमयं, कणीयसं एक्के-क्के पंच सोल्लया। तहेव करेइ, जहा चुलणीपियस्स, नवरं एक्के-क्के पंच सोल्लया // 152 // छाया ततः खलु तस्य सुरादेवस्य श्रमणोपासकस्य पूर्वरात्रापरत्रकालसमये एको देवोऽन्तिकं प्रादुरभूत्, स देव एकं महान्तं नीलोत्पल यावदसिं गृहीत्वा सुरादेवं श्रमणोपासकमेवमवादीत्— "हंभो! सुरादेव! श्रमणोपासक! अप्रार्थित प्रार्थक! यदि खलु त्वं शीलानि यावन्न भनक्षि तर्हि ते ज्येष्ठं पुत्रं स्वस्माद् गृहान्नयामि, नीत्वा तवाग्रतो घातयामि, घातयित्वा पञ्च शूल्यकानि करोमि, कृत्वा, आदहनभृते कटाहे आदहामि, आदह्य तव गात्रं मांसेन च शोणितेन चाऽऽसिञ्चामि यथा खलु त्वमकाल एव जीविताद्व्यपरोपयिष्यसे / एवं मध्यमकं, कनीयांसम्, एकैकस्मिन् पञ्च शूल्यकानि तथैव करोति यथा चुलनीपितुः / नवरमेकैकस्मिन् पञ्च शूल्यकानि। . शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स—उस सुरादेव श्रमणोपासक के, | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 255 / सुरादेव उपासक, चतुर्थ अध्ययन /