________________ कालक्रम से बारहवें अंग दृष्टिवाद का लोप हो गया। शेष अङ्ग भी अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी ये महावीर की मौलिक परम्परा के प्रतीक हैं। दिगम्बर परम्परा में यह माना जाता है कि मूल आगम सर्वथा लुप्त हो गए और इस समय जो उपलब्ध हैं वे भगवान महावीर के 680 वर्ष पश्चात् देवर्द्धिगणी के संकलित किए हुए हैं। गणधरों के बाद चौदह पूर्वो का ज्ञान रखने वाले मुनिवरों ने जो कुछ लिखा वह आगमों में सम्मिलित कर लिया गया। जैन परम्परा में चौदह पूर्वधारी को श्रुतकेवली कहा जाता है अर्थात् वह सम्पूर्ण शास्त्रीय ज्ञान का धारक होता है। इसके बाद सम्पूर्ण दस पूर्वो का ज्ञान रखने वाले मुनियों ने जो कुछ लिखा उसे भी आगमों में स्थान दे दिया गया। कहा जाता है—दस पूर्वो का ज्ञान सम्यग्दृष्टि ही प्राप्त कर सकता है। मिथ्यादृष्टि दसवें पूर्व को पूरी तरह नहीं जान सकता / दस पूर्वधारी का सम्यग्दृष्टि होना अनिवार्य है, इसलिए उसके द्वारा रचा गया साहित्य भी. आगम कोटि में आ गया। पूर्वो का ज्ञान लुप्त होने के बाद जो साहित्य रचा गया, उसे भी आगमों में स्थान मिला। इस प्रकार हम देखते हैं कि वीर-निर्वाण के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक नए प्रकरण रचे गए और उन्हें आगमों में स्थान भी मिलता गया। यह कार्य नीचे लिखी तीन वाचनाओं में हुआ। तीन वाचनाएं पाटलिपुत्र परिषद् (वी. नि. 165) भगवान् महावीर के 160 वर्ष पश्चात् मगध में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। साधुओं को आहार-पानी मिलना कठिन हो गया। वे इधर-उधर बिखर गए। उनके साथ आगमों का ज्ञान भी छिन्न-भिन्न हो गया। दुर्भिक्ष का अन्त होने पर समस्त संघ एकत्रित हुआ और आगमों को सुरक्षित रखने पर विचार हुआ। जिस मुनि को जितना स्मरण था, उसने कह सुनाया। इस प्रकार 11 अङ्ग तो सुरक्षित हो गए किन्तु बारहवां दृष्टिवाद किसी को याद न निकला। उस समय आर्य भद्रबाहु ही चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे और वे योग साधना के लिए नेपाल गए हुए थे। संघ ने श्रुत-रक्षा के लिए स्थूलभद्र तथा अन्य पांच सौ साधुओं को उनके पास भेजा। भद्रबाहु महाप्राण नामक ध्यान में लगे हुए थे। इसलिए अध्यापन के लिए समय कम मिलता था। ऊबकर दूसरे साधु तो वापिस चले आए किन्तु स्थूलभद्र वहां रह गए। उन्होंने सेवा एवं परिश्रम द्वारा दस पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर लिया। किन्तु शेष चार पूर्वो को केवल मूलमात्र सीख सके। उसके लिए भी दूसरों को सिखाने की मनाही थी। इस प्रकार भगवान महावीर के दो सौ वर्ष पश्चात् श्रुतज्ञान का ह्रास प्रारम्भ हो गया। वी.नि. 161 में आर्यसुहस्ति के समय भी राजा सम्प्रति के राज्य में दुर्भिक्ष पड़ा। ऐसे संकटों के समय श्रुतज्ञान का ह्रास स्वाभाविक था। पाटलिपुत्र वाचना का विस्तृत वर्णन तित्थोगाली पइण्णय, आवश्यकचूर्णि और हेमचन्द्र के | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 21 / प्रस्तावना