________________ को दण्ड देने का त्याग नहीं होता। उपरोक्त मिथ्यात्वी देव अपराधी था। उसे पकड़ने और दण्ड देने के लिए उठने में श्रावक का अहिंसा व्रत नहीं टूटता, किन्तु चुलनीपिता पौषध में था। उसने दो करण तीन योग से समस्त हिंसा का त्याग कर रखा था। माता या पुत्र ही नहीं अपने शरीर पर भी यदि कोई प्रहार करने आता है तो पौषधधारी को शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिए। उस समय उसकी अवस्था एक साधु के समान होती है। इससे यह नहीं सिद्ध होता है कि खुली अवस्था में भी माता-पिता आदि की रक्षा करना पाप है। प्रायश्चित तो व्रत के भग्न होने के कारण से है, माता की रक्षा के लिए प्रायश्चित नहीं है। चुलनीपिता द्वारा भूल स्वीकार और प्रायश्चित्त ग्रहणमूलम् तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मगाए भद्दाए सत्यवाहीए “तह" त्ति एयमढें विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवज्जइ / / 148 // छाया ततः खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासकोऽम्बिकायाः भद्रायाः सार्थवाह्याः तथेति एतमर्थं विनयेन प्रतिश्रृणोति, प्रतिश्रुत्य तस्य स्थानस्य आलोचयति, यावप्रतिपद्यते। शब्दार्थ तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तदनन्तर उस चुलनीपिता श्रमणोपासक ने, अम्मगाए भद्दाए सत्थवाहीए तह त्ति एयमढें—माता भद्रा सार्थवाही की इस बात को तथेति पूर्वक, विणएणं पडिसुणेइ–विनयपूर्वक स्वीकार किया, पडिसुणेत्ता स्वीकार करके, तस्स ठाणस्स—उस भूल की, आलोएइ—आलोचना की, जाव पडिवज्जइ यावत् प्रायश्चित्त अङ्गीकार किया। ___ भावार्थ तब चुलनीपिता श्रावक ने माता की बात विनयपूर्वक स्वीकार की, और उस भूल की आलोचना की यावत् प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि की। चुलनीपिता द्वारा प्रतिमा ग्रहणमूलम् तए णं से चुलणीपिया समणोवासए पढमं उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, पढमं उवासग-पडिमं अहासुत्तं जहा आणंदो जाव एक्कारसमं पि // 146 // छाया–ततः खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासकः प्रथमामुपासकप्रतिमामुपसम्पद्य विहरति / प्रथमामुपासक-प्रतिमां यथा सूत्रं यथाऽऽनन्दो यावदेकादशीमपि / शब्दार्थ तए णं से चुलणीपिया समणोवासए—तदनन्तर उस चुलनीपिता श्रमणोपासक ने, पढमं उवासग पडिमं—प्रथम उपासक प्रतिमा को, उवसंपज्जित्ताणं विहरइ–अङ्गीकार किया, पढमं उवासग पडिमं—प्रथम उपासक प्रतिमा को, अहासुत्तं तथा सूत्र, जहा आणंदो—आनन्द के समान पालन किया, जाव एक्कारसमंपि—यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन किया। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 252 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन /