________________ छाया-ततः खलु तेन पुरुषेण द्वितीयमपि तृतीयमपि ममैवमुक्तस्य सतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः ५–अहो खल्वयं पुरुषोऽनार्यो यावत्समाचरति येन मम ज्येष्ठं पुत्रं स्वस्माद् गृहात्तथैव यावत्कनीयांसं यावदासिञ्चति, युष्मानपि च खल्विच्छति स्वस्माद् गृहान्नीत्वा ममाग्रतो घातयितुम्, तच्छ्रेयः खलु ममैतं पुरुषं ग्रहीतुमिति कृत्वोत्थितः, सोऽपि चाऽऽकाशे उत्पतितः, मयाऽपि च स्तम्भ आसादितः, महता 2 शब्देन कोलाहलः कृतः। . शब्दार्थ तए णं तेणं पुरिसेणं तदनन्तर उस पुरुष द्वारा, दोच्चंपि तच्चंपि—दूसरी बार और तीसरी बार, ममं मुझे, एवं वुत्तस्स समाणस्स इस प्रकार कहे जाने पर, इमेयारूवे इस प्रकार, अज्झथिए–विचार आया, अहो णं इमे पुरिसे—अहो! यह पुरुष, अणारिए-अनार्य है, जाव यावत्, समायरइ—पाप कर्मों का समाचरण करता है, जेणं मम जेहें पुत्तं जिसने मेरे ज्येष्ठ पुत्र को, साओ गिहाओ-अपने घर से, तहेव—उसी प्रकार कहा, जाव—यावत्, कणीयसं जाव आयंचइ लघु पुत्र को मारकर मुझे सिञ्चन किया, तुब्भे वि य णं इच्छइ-तुम्हें भी यह चाहता है, साओ गिहाओ अपने घर से, नीणेत्ता निकालकर, ममं अग्गओ मेरे आगे, घाएत्तए—मार डालना, तं सेयं खलु ममं तो मुझे उचित होगा कि, एयं पुरिसं गिण्हित्तए इस पुरुष को पकड़ लूँ, त्ति कटु ऐसा विचार करके मैं, उद्धाइए—उठा, से वि य आगासे उप्पइए—और वह भी आकाश में उड़ गया। मए वि य खम्भे आसाइए और मैंने भी यह खंभा पकड़ लिया, महया 2 सद्देणं कोलाहले कए और जोर-जोर से चिल्लाने लगत / भावार्थ—उसके दूसरी और तीसरी बार ऐसा कहने पर मुझे विचार आया—यह पुरुष अनार्य है, इसकी बुद्धि भी अनार्य है, और आचरण भी अनार्य है। इसने मेरे बड़े, मंझले और छोटे पुत्र को मार डाला है और मेरा शरीर उनके खून से सींचा। अब यह तुम्हें भी मेरे सामने लाकर मार डालना चाहता है, अतः इसे पकड़ लेना ही उचित है। ऐसा विचार कर ज्यों ही मैं उठा तो वह आकाश में उड़ गया, मेरे हाथ में खम्भा आ गया और मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगा। ____ मूलम् तए णं सा भद्दा सत्थवाही चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी–“नो खलु केइ पुरिसे तव जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएइ, एस णं केइ पुरिसे तव उवसग्गं करेइ,, एस णं तुमे विदरिसणे दिढे / तं णं तुम इयाणिं भग्ग-व्वए भग्ग-नियमे भग्ग-पोसहे विहरसि / तं णं तुमं पुत्ता! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि" || 147 // छाया–ततः खलु सा भद्रा सार्थवाही चुलनीपितरं श्रमणोपासकमेवमवादीत्–“नो खलु कोऽपि पुरुषस्तव यावत् कनीयांसं पुत्रं स्वस्माद् गृहान्नयति, नीत्वा तवाग्रतो घातयति, एष खलु कोऽपि | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 246 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन