________________ भो चुलणीपिया! हे चुलनीपिता!, समणोवासया! श्रमणोपासक!, अपत्थिय पत्थया! अनिष्ट के कामी!, जाव न भंजेसि—यावत् नहीं भङ्ग करेगा, तो ते—तो तेरी, अज्ज—आज, जा—जो, इमा—यह, माया—माता, देवय गुरु जाव ववरोविज्जसि—देव, गुरु है यावत् काल-धर्म को प्राप्त होगा। ___भावार्थ-जब उसने मुझे निर्भय देखा तो चौथी बार बोला- "हे चुलनीपिता श्रावक! अनिष्ट के कामी! यावत् तू भंग नहीं करता तो जो यह तेरी माता देव, गुरु-स्वरूप है उसे भी मार डालूंगा। यावत् तू मर जाएगा।" मूलम्—तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरामि // 144 // छाया–ततः खल्वहं तेन पुरुषेणैवमुक्तः सन्नभीतो यावद् विहरामि / शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, अहं—मैं, तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे—उस पुरुष के ऐसा कहने पर भी, अभीए जाव विहरामि निर्भय यावत् विचरता रहा। भावार्थ तब उसके ऐसा कहने पर भी मैं निर्भय विचरता रहा। मूलम् तए णं से पुरिसे दोच्चंपि तच्चपि ममं एवं वयासी–“हंभो चुलणीपिया! समणोवासया! अज्ज जाव ववरोविज्जसि" || 145 // छाया ततः खलु स पुरुषो द्वितीयमपि तृतीयमपि मामैत्रमवादीत्-हंभोः चुलनीपितः! श्रमणोपासक! अद्य यावद् व्यपरोपयिष्यसे। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से पुरिसे—वह पुरुष, दोच्चंपि तच्चंपि-दूसरी और तीसरी बार, ममं मुझे, एवं वयासी-ऐसा कहने लगा, हं भो! चुलणीपिया!—समणोवासया! हे चुलनीपिता! श्रमणोपासक!, अज्ज जाव ववरोविज्जसि—आज यावत् मारा जाएगा। भावार्थ—उस देव ने दूसरी बार और तीसरी बार उसी प्रकार कहा कि चुलनीपिता! आज यावत् मारा जाएगा। मूलम् तए णं तेणं पुरिसेणं दोच्चंपि तच्चपि ममं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए 5, “अहो णं! इमे पुरिसे अणारिए जाव समायरइ, जेणं मम जेठं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव कणीयसं जाव आयंचइ," तुब्भे वि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खुल ममं एवं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्धाइए। सेवि य आगासे उप्पइए, मए वि य खम्भे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए" ||146 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 248 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन /