________________ छाया ततः खलु स पुरुषो मामभीतं यावद् विहरमाणं पश्यति दृष्ट्वा माम् द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमवादीत्—“हंभो चुलनीपितः! श्रमणोपासक! तथैव यावद् गात्रमासिञ्चति।" शब्दार्थ तए णं से पुरिसे—तदनन्तर उस पुरुष ने, ममं अभीयं-मुझे अभीत, जाव विहरमाणं यावत् विचरते हुए, पासइ देखा, पासित्ता देखकर, ममं—मुझे, दोच्चंपि तच्चंपि—द्वितीय और तृतीय बार, एवं वयासी इस प्रकार कहने लगा, हं भो चुलणीपिया! हे चुलनीपिता! समणोवासया! श्रमणोपासक! तहेव सर्व उसी प्रकार, जाव—यावत् (उसने), गायं आयंचइ–मेरे शरीर पर छीटें मारे। भावार्थ तब भी उसने मुझे निर्भय तथा शान्त देखा। और दूसरी तथा तीसरी बार वैसा ही कहा—हे चुलनीपिता श्रावक! पहले की तरह यावत् मांस और रुधिर से मेरे शरीर को सींचा। मूलम् तए णं अहं तं उज्जलं जाव अहियासेमि, एवं तहेव उच्चारेयव्वं सव्वं जाव कणीयसं जाव आयंचइ, अहं तं उज्जलं जाव अहियासेमि // 142 // छाया ततः खल्वहं तामुज्ज्वला यावद् अध्यासे | एवं तथैवोच्चारयितव्यं, सर्वं यावत्कनीयंसं यावद् आसिञ्चति / अहं तामुज्ज्वला यावद् अध्यासे | - शब्दार्थ तए णं अहं तदनन्तर मैंने, तं उज्जलं जाव अहियासेमि—उस उज्ज्वल यावत् वेदना को शान्त रहकर सहन किया। एवं इसी प्रकार, तहेव उच्चारेयव्वं सव्वं वैसे ही सब उच्चारण करना चाहिए, जाव कणीयसं—यावत् लघु पुत्र को, जाव आयंचइ—मारा यावत् मेरे शरीर (चुलनीपिता को) सींचा। भावार्थ_मैंने उस असह्य वेदना को सह लिया। इसी प्रकार पूर्वोक्त सारा वृत्तान्त कहा। यावत् छोटे लड़के को मारकर मेरे शरीर को उसके मांस और रुधिर के छींटे मारे। मैंने इस असह्य वेदना को भी सहन किया।" : मूलम् तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता ममं चउत्थंपि एवं वयासी-"हंभो चुलणीपिया समणोवासया! अपत्थिय-पत्थया! जाव न भंजेसि, तो ते अज्ज जा इमा माया देवय गुरु जाव ववरोविज्जसि" || 143 // .. छाया ततः खलु स पुरुषो मामभीतं यावत्पश्यति, दृष्ट्वा माम् चतुर्थमप्येवमवादीत्-"हंभोः चुलनीपितः! श्रमणोपासक! अप्रार्थित प्रार्थक! यावन्न भनक्षि तर्हि तेऽद्य या इयं माता दैवत गुरु यावद् व्यपरोपयिष्यसे।" __ शब्दार्थ-तए णं से पुरिसे—तदनन्तर उस पुरुष ने, ममं अभीयं जाव—मुझे निर्भय यावत् शान्त, पासइ देखा, पासित्ता–देखकर, मम चउत्थंपि—मुझे चतुर्थ बार, एवं वयासी—इस प्रकार कहा–हं | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 247 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन