________________ मूलम् तए णं से चुलणीपिया समणोवासए, अम्मयं भई सत्थवाहिं एवं वयासी–“एवं खलु अम्मो ! न जाणामि के वि पुरिसे आसुरुत्ते 5 एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय ममं एवं वयासी-"हं भो चुलणीपिया ! समणोवासया ! अपत्थिय-पत्थया ! 4 वज्जिया, जइ णं तुमं जाव ववरोविज्जसि" || 136 // छाया ततः खलु स चुलनीपिता, श्रमणोपासकोऽम्बिकां भद्रां सार्थवाहीमेवमवादीत्– “एवं खलु अम्ब ! न जानामि कोऽपि पुरुष आशुरुप्तः 5 एकं महान्तं नीलोत्पल असिं गृहीत्वा मामैवमवादीत् हंभो चुलनीपितः! श्रमणोपासक! अप्रार्थितप्रार्थक! 4 वर्जित! यदि खलु त्वं यावद्व्यपरोपयिष्यसे।" शब्दार्थ तए णं से—तदनन्तर वह, चुलणीपिया समणोवासए—चुलनीपिता श्रमणोपासक, अम्मयं भदं—माता भद्रा, सत्थवाहिं—सार्थवाही को, एवं वयासी—इस प्रकार कहने लगा एवं खलु . अम्मो—इस प्रकार हे माता !, न जाणामि—मैं नहीं जानता, के वि पुरिसे—कोई पुरुष, आसुरुत्ते ५—क्रोधित होकर, एगं महं—एक महान्, नीलुप्पल असिं–नीलोत्पल के समान वर्ण वाली तलवार को, गहाय ग्रहण कर के, ममं मुझ से, एवं वयासी इस प्रकार कहने लगा हं भो चुलणीपिया ! समणोवासया हे चुलनीपिता श्रमणोपासक!, अपत्थिय पत्थया!—अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले, जाव वज्जिया यावत् पुण्यवर्जित अर्थात् अभागे, ज इ णं यदि, तुमं—तू शीलादि व्रतों को न तोड़ेगा, जाव ववरोविज्जसि—यावत् मार दिया जाएगा। भावार्थ चुलनीपिता श्रावक माता भद्रा सार्थवाही से कहने लगा "हे मां ! न जाने क्रोध से भरा हुआ कोई पुरुष हाथ में नीली तलवार लेकर मुझ से कहने लगा—'हे चुलनीपिता श्रावक! अनिष्ट के कामी ! यदि तू शीलादि का त्याग न करेगा तो मैं तेरे ज्येष्ठ पुत्र को मार डालूंगा।" मूलम् तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरामि॥ 140 // . छाया-ततः खल्वहं तेन पुरुषेणैवमुक्तः सन्नभीतो यावद्विहरामि। . शब्दार्थ तए णं अहं तदनन्तर मैं, तेणं पुरिसेणं—उस पुरुष द्वारा, एवं वुत्ते समाणे ऐसा कहने पर भी, अभीए जाव विहरामि निर्भय यावत् शान्त रहा। भावार्थ—उसके ऐसा कहने पर भी मैं भयभीत नहीं हुआ और धर्मसाधना में स्थिर रहा। मूलम् तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता ममं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी–“हंभो चुलणीपिया! समणोवासया! तहेव जाव गायं आयंचई" ||141 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 246 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन