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________________ मूलम्त ए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता चुलीपियं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी—“हंभो चुलणीपिया! समणोवासया! तहेव जाव ववरोविज्जसि" || 136 // छाया–ततः खलु स देवश्चुलनीपितरं श्रमणोपासकमभीतं यावद् विहरमाणं पश्यति, दृष्ट्वा चुलनीपितरं श्रमणोपासकं द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमवादीत्-"हंभो चुलनीपितः! श्रमणोपासक! यावद् व्यपरोपयिष्यसे / " शब्दार्थ-तए णं से देवे तदनन्तर वह देव, चुलणीपियं समणोवासयं—चुलनीपिता श्रमणोपासक को, अभीयं जाव–निर्भय यावत्, विहरमाणं—धर्म साधना में स्थिर, पासइ देखता है, पासित्ता देखकर, चुलणीपियं समणोवासयं—चुलणीपिता श्रमणोपासक को, दोच्चंपि तच्चंपिद्वितीय बार और तृतीय बार, एवं वयासी—इस प्रकार कहने लगा-हं भो–हे, चुलणीपिया समणोवासया! चुलनीपिता श्रमणोपासक! तहेव—उसी प्रकार पहले की भांति कहा, जाव ववरोविज्जसि यावत् मृत्यु को प्राप्त करेगा। ___ भावार्थ देवता ने उसे निर्भय एवं स्थिर देखा तो दूसरी और तीसरी बार वही बात कही-“चुलनीपिता श्रावक! उसी प्रकार यावत् मारा जाएगा।" चुलनीपिता का क्षुब्ध होना और पिशाच को पकड़ने का प्रयलमूलम् तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्वंपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ५–“अहो णं इमे पुरिसे अणारिए अणारिय-बुद्धी अणारियाई पावाई कम्माई समायरइ, जेणं ममं जेठं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता ममं अग्गओ घाएइ, घाइत्ता जहा कयं तहा चिंतेइ, जाव गायं आयंचइ, जेणं मम मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ जाव सोणिएण य आयंचइ, जेणं मम कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव आयंचइ, जा वि य णं इमा मम माया भद्दा सत्थवाही देवय-गुरु-जणणी दुक्कर-दुक्करकारिया, तं पि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए" त्ति कटु उद्धाइए, से वि य आगासे उप्पइए, तेणं च खम्भे आसाइए, महया-महया सद्देणं कोलाहले कए // 137 // छाया ततः खलु तस्य चुलणीपितुः श्रमणोपासकस्य तेन देवेन द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमुक्तस्य सतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः ५-“अहो! खलु अयं पुरुषोऽनार्यः, अनार्यबुद्धिरनार्याणि पापानि कर्माणि समाचरति, येन मम ज्येष्ठं पुत्रं स्वस्माद् गृहान्नयति, नीत्वा ममाग्रतो घातयति, घातयित्वा यथा श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 243 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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