SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे—उस देव ने, चुलणीपियं समणोवासयं—चुलनीपिता श्रमणोपासक को, अभीयं जाव पासइ–अभय यावत् देखा, पासित्ता देखकर के, दोच्चंपि तच्चंपि—द्वितीय तथा तृतीय बार, चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी चुलनीपिता श्रमणोपासक के प्रति इस प्रकार कहा—हं भो हे, चुलणीपिया समणोवासया!—चुलनीपिता! श्रमणोपासक ! अपत्थिय पत्थया !—अप्रार्थित प्रार्थक अर्थात् मृत्यु की प्रार्थना करने वाले, जाव न भंजेसि यावत् तू नियमों को नहीं तोड़ेगा, तो ते तो तेरे, अज्ज—आज, अहं—मैं, मज्झिमं पुत्तं—मंझले पुत्र को, साओ गिहाओ नीणेमि–घर से.लाता हूं, नीणित्ता—ला कर, तव अग्गओ घाएमि तेरे आगे मारता हूं, जहा—जैसे, जेठे पुत्तं-ज्येष्ठ पुत्र के विषय में कहा था, तहेव भणइ-वैसे ही कहा, तहेव करेइ-और वैसे ही किया। एवं इसी प्रकार, तच्चंपि-तृतीय, कणीयसं-छोटे पुत्र को भी किया, जाव यावत्, अहियासेइ–चुलनीपिता ने उस उपसर्ग को सम्यक् प्रकार से सहन किया। ____ भावार्थ-तब भी जब देव ने चुलनीपिता श्रावक को निर्भय यावत् देखा, तो पुनः उससे कहा-अरे मृत्यु की प्रार्थना करने वाले! यदि तू शीलादि को भंग नहीं करता तो मैं आज तेरे मंझले पुत्र को घर से लाकर तेरे सामने मारता हूं। इस प्रकार उसने ज्येष्ठ पुत्र के सम्बन्ध में जैसा कहा और किया था वैसा ही कहा और किया। चुलनीपिता ने उस असह्य वेदना को अन्त तक सहन किया। देव ने तृतीय पुत्र के विषय में भी उसी प्रकार कहा और चुलनीपिता के समाने लाकर मार डाला। किन्तु वह विचलित न हुआ। माता के वध की धमकीमूलम्-तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता चउत्थंपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी–“हंभो चुलणीपिया! समणोवासया! अपत्थिय-पत्थया! 4, जइ णं तुमं जाव न भंजेसि, तओ, अहं अज्ज जा इमा तव माया भद्दा सत्थवाही देवय-गुरु-जणणी दुक्कर-दुक्करकारिया, तं ते साओ गिहाओ नीणेमि नीणित्ता तव अग्गओ घाएमि घाइत्ता तओ मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि अद्दहित्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुम अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि" || 134 // छाया–ततः खलु स देवश्चुलनीपितरं श्रमणोपासकमभीतं यावत्पश्यति, दृष्ट्वा चतुर्थमपि चुलनीपितरं श्रमणोपासकमेवमवादीत्—हंभो! चुलनीपितः! श्रमणोपासक! अप्रार्थितप्रार्थक! यदि खलु त्वं यावन्न भनक्षि ततोऽहमद्य येयं तव माता भद्रा सार्थवाही दैवतगुरु-जननी दुष्करदुष्करकारिका तां ते स्वस्माद् गृहान्नयामि, नीत्वा तवाग्रतो घातयामि, घातयित्वा त्रीणि मासशूल्यकानि करोमि, श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 241 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन पान
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy