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________________ मांसशूल्यकानि करोति, कृत्वा, आदहनभृते कटाहे आदहति, आदह्य चुलनीपितुः श्रमणोपासकस्य गात्रं मांसेन च शोणितेन चाऽऽसिञ्चति / ___ शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे—उस देव ने, चुलणीपियं समणोवासयं—चुलनीपिता श्रमणोपासक को, अभीयं जाव पासित्ता–अभय यावत् देखकर, आसुरुत्ते ४—क्रोधित होकर, चुलणीपियस्स समणोवासयस्स—चुलनीपिता श्रमणोपासक के, जेटुं पुत्तं बड़े पुत्र को, गिहाओ घर से, नीणेइ–निकाला, नीणित्ता निकालकर के, अग्गओ घाएइ—उसके सामने मार डाला, घाइत्ता—मार कर के, तओ—तीन, मंससोल्लए करेइ–मांस के तीन टुकड़े किए, करेत्ता—करके, आदाण भरियंसि कडाहयंसि—अदहन से भरे हुए कडाहे में, अद्दहेइ तला, अद्दहिता तलकर के, चुलणीपियस्स समणोवासयस्स—चुलनीपिता श्रमणोपासक के, गायं शरीर पर, मंसेण य—मांस और, सोणिएण य-शोणित से, आयंचइ छींटे दिए। भावार्थ तब तो वह देव क्रोधित होकर चुलनीपिता श्रावक के बड़े लड़के को घर से निकाल लाया। उसके सामने लाकर मार डाला, और तीन टुकड़े किए। उन्हें तेल से भरे कड़ाहे में तला और उसके मांस और रुधिर से चुलनीपिता के शरीर पर छींटे मारे / मूलम् तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ॥ 132 // छाया–ततः खलु च चुलनीपिता श्रमणोपासकस्तामुज्जवला यावदध्यास्ते | शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, चुलणीपिया समणोवासए—चुलनीपिता श्रमणोपासक ने, तं उज्जलं—उस तीव्र, जाव यावत् वेदना को, अहियासेइ–सम्यक् प्रकार से सहन किया। भावार्थ-चुलनीपिता श्रावक ने देव द्वारा दिए हुए कष्ट की उस असह्य वेदना को शान्तिपूर्वक सहन किया। मूलम् तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाब पासइ, पासित्ता दोच्चंपि तच्चंपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी—“हं भो चुलणीपिया समणोवासया! अपत्थिय-पत्थया! जाव न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणित्ता तव अग्गओ घाएमि" जहा जेठं पुत्तं तहेव भणइ, तहेव करेइ / एवं तच्चपि कणीयसं जाव अहियासेइ // 133 // छाया ततः खलु स देवश्चुलनीपितरं श्रमणोपासकमभीतं यावत् पश्यति, दृष्टवा द्वितीयमपि तृतीयमपि चुलनीपितरं श्रमणोपासकमेवमवादीत्-"हंभो! चुलनीपितः! श्रमणोपासक! अप्रार्थितप्रार्थक! यावन्न भनक्षि तर्हि तेऽहमद्य मध्यमं पुत्रं स्वस्माद् गृहान्नयामि, नीत्वा तवाऽग्रतो घातयामि" यथा ज्येष्ठं पुत्रं तथैव भणति, तथैव करोति, एवं तृतीयमपि कनीयांसं यावदध्यास्ते। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 240 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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