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________________ भावार्थ-चुलनीपिता श्रमणोपासक देवता के ऐसा कहने पर भी निर्भय यावत् शान्त रहा। मूलम् तएं णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता दोच्चंपि तच्चंपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी–“हंभो चुलणीपिया! समणोवासया!' तं चेव भणइ, सो जाव विहरइ // 130 // छाया ततः खलु स देवश्चुलनीपितरं श्रमणोपासकमभीतं यावत् पश्यति, दृष्ट्वा द्वितीयमपि तृतीयमपि चुलनीपितरं श्रमणोपासकमेवमवादीत्—हंभो चुलनीपितः! श्रमणोपासक! तदेव भणति स यावद्विहरति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे—उस देव ने, चुलणीपियं समणोवासयं—चुलनीपिता श्रमणोपासक को, अभीयं जाव पासइ–निर्भय यावत् शान्त देखा, पासित्ता देखकर, दोच्चंपि तच्चंपि—द्वितीय तथा तृतीय बार, चुलणीपियं समणोवासयं—चुलनीपिता श्रमणोपासक को, एवं वयासी—इस प्रकार कहा-हं भो चुलणीपिया हे चुलनीपिता!, समणोवासया! श्रमणोपासक!, तं चेव भणइ—पुनः वही वचन कहे, सो जाव विहरइ—वह भी यावत् निर्भय विचरता रहा। भावार्थ-जब देव ने चुलनीपिता श्रमणोपासक को निर्भय यावत् शान्त देखा तो दूसरी बार तथा तीसरी बार वही बात कहीं। चुलनीपिता भी निर्भय यावत् शान्त बना रहा। टीका प्रस्तुत सूत्र में देव कृत उपसर्ग का वर्णन है जो कामदेव से भिन्न प्रकार का है, आदाणं भरियंसि—आदाण का अर्थ है तैल या पानी आदि आर्द्र वस्तुएँ। यहां टीकाकार के निम्नलिखित शब्द हैं—“आद्रहणं यदुदत्तक तैलादिकमन्यतर द्रव्य पाकायाग्नावुत्ताप्यते तद्भुते, 'कडाहयंसि' त्ति कटाहेद्यलोहमयभाजनविशेष आद्रहयामि उत्क्वाथयामि।" ___ हिन्दी में इसके लिए अदहन शब्द का प्रयोग होता है, यह आर्द्रदहन से बना है। इसका अर्थ है—घी, तेल, पानी आदि वे वस्तुएं जो गीली होने पर भी जलाती हैं। - पुत्रों का वध और चुलनीपिता का अविचलित रहनामूलम् तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता आसुरुत्ते 4 चुलणीपियस्स समणोवासयस्स जेट्टं पुत्तं गिहाओ नीणेइ, नीणित्ता अग्गओ घाएइ, घाइत्ता तओ मंससोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अद्दहित्ता, चुलणीपियस्स समणोवासयस्स गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ // 131 // ___ छाया-ततः खलु स देवश्चुलनीपितरं श्रमणोपासकमभीतं यावद् दृष्ट्वा आशुरुप्त 4 श्चुलनीपितुः श्रमणोपासकस्य ज्येष्ठं पुत्रं गृहान्नयति, नीत्वाऽग्रतो घातयति, घातयित्वा त्रीणि | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 236 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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