________________ छाया-ततः खलु स देव एकं महन्नीलोत्पल यावदसिं गृहीत्वा चुलनीपितरं श्रमणोपासकमेवमवादीत् हंभो चुलनीपितः ! श्रमणोपासक ! यथा कामदेवो यावन्न भनक्षि तर्हि तेऽहमद्य ज्येष्ठं पुत्रं स्वकात् गृहात् नयामि, नीत्वा तवाग्रतो घातयामि, घातयित्वा, त्रिणि मांसशूल्यकानि करोमि, कृत्वा आदहनभृते कटाहे आदहामि, आदह्य तव गात्रं मांसेन च शोणितेन चाऽऽसिञ्चामि यथा खलु त्वमार्त्त-दुःखार्त-वशार्तोऽकाल एव जीविताद्व्यपरोपयिष्यसे | शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे—वह देव, एगं—एक, महं नीलुप्पल–महान् नीलोत्पल के समान, जाव यावत्, असिं तलवार को, गहाय ग्रहण करके, चुलणीपियं चुलनीपिता, समणोवासयं श्रमणोपासक को, एवं वयासी—इस प्रकार कहने लगा, हं भो—हे, चुलणीपिया ! चुलनीपिता ! समणोवासया–श्रमणोपासक! जहा—जैसे, कामदेवो —कामदेव श्रमणोपासक से कहा था, जाव—यावत् तू, न भंजेसि—नियमादि को नहीं छोड़ता, तो ते तो तेरे, अहं—मैं, अज्ज—आज, जेठं पुत्तं—ज्येष्ठ पुत्र को, साओ गिहाओ—अपने घर से, नीणेमि–लाता हूं, नीणित्ता–लाकर, तव अग्गओ तेरे सामने, घाएमि—मारता हूँ, घाइत्ता—मार कर के, तओ मंससोल्ले करेमि–तीन माँस खंड करता हूँ, करेत्ता—करके, आदाण भरियसि कडाहयंसि—आदान (तेल) से भरी हुई कडाही में, अद्दहेमि–तलूंगा, अद्दहित्ता तलकर, तय गायं तेरे शरीर को, मंसेण य—मांस और, सोणिएण य-रुधिर से, आयंचामि–छींटे देता हूं; जहा णं-जिससे, तुमं—तू, अट्ट-दुहट्ट वसट्टे—अति चिन्ता मग्न दुःखात होता हुआ, अकाले चेव–अकाल में ही, जीवियाओ—जीवन से, ववरोविज्जसि—पृथक् हो जाएगा। ___ भावार्थ वह देव नील कमल के समान यावत् तलवार लेकर चुलनीपिता श्रावक को बोला—“हे चुलनीपिता श्रावक! यावत् कामदेव की तरह कहा'' यावत् शील आदि को भंग नहीं करेगा तो तेरे बड़े लड़के को घर से लाकर तुम्हारे सामने मार डालूंगा। उसके तीन टुकड़े करूंगा और शूल में पिरोकर तेल से भरी हुई कढ़ाई में पकाऊंगा। तुम्हें उसके मांस और खून से छींटूंगा। परिणामस्वरूप तुम चिन्ता मग्न, दुखी तथा विवश होकर अकाल में जीवन से हाथ धो बैठोगे। ' चुलनीपिता का शान्त रहनामूलम् तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ // 126 // छाया ततः खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासकस्तेन देवेनैवमुक्तः सन्नभीतो यावत् विहरति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से चुलणीपिया वह चुलनीपिता, समणोवासए श्रमणोपासक, तेणं देवेणं --उस देव के, एवं ऐसा, वुत्ते समाणे—कहने पर भी, अभीए जाव—यावत् निर्भय, विहरइ बना रहा। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 238 / चुलनीपिता उपासक, तृतीय अध्ययन /