________________ वस्त्र (धारण कर), जाव—यावत्, अप्पमहग्घ जाव मणुस्स वग्गुरा परिक्खित्ते—अल्प भार बहुमूल्य (आभूषण धारण कर) यावत् जन समुदाय से वेष्टित होकर, सयाओ गिहाओ—अपने घर से, पडिणिक्खमइ निकला, पडिणिक्खमित्ता—निकलकर, चम्पं नगरिं चम्पा नगरी के, मज्झं मज्झेणं-मध्य में होता हुआ, निगच्छइ निकला, निग्गच्छित्ता निकलकर, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जिधर पूर्णभद्र चैत्य था, जहा संखो-शंख की तरह, जाव—यावत् पज्जुवासइ—पर्युपासना की। ___भावार्थ-कामदेव श्रावक ने जब सुना कि “श्रमण भगवान महावीर यावत् विचर रहे हैं'' तो मन में विचार किया कि “अच्छा होगा यदि मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार करके लौटकर पौषध का पारणा करूं।" यह विचार कर परिषद् आदि में प्रवेश करने योग्य शुद्ध वस्त्र यावत् अल्प भार बहुमूल्य आभूषण धारण करके यावत् जन समुदाय से परिवृत्त होकर घर से निकला। चम्पा नगरी के बीच होता हुआ पूर्णभद्र चैत्य में पहुंचा और शंख के समान पर्युपासना की। टीका–उपसर्ग समाप्त होने पर कामदेव को ज्ञात हुआ कि भगवान् महावीर नगरी के बाहर उद्यान में आए हुए हैं। उसने उन्हें वन्दना नमस्कार करने और तत्पश्चात् पौषध पारणे का निश्चय किया। व्रत समाप्त करने से पहले यथा सम्भव धर्मगुरु के दर्शन करने की परिपाटी उस समय से चली आ रही है। इससे यह भी प्रकट होता है कि पारणे के पहले कामदेव में किसी प्रकार की आतुरता नहीं थी। उसने उत्साह तथा शान्ति के साथ प्रत्येक धर्म क्रिया का पालन किया। सुद्धप्पावेसाइं इसका अर्थ है शुद्ध अर्थात् पवित्र एवं सभा में प्रवेश करने योग्य वस्त्र। ज्ञात होता है कि धर्म क्रिया के लिए उस समय भी बाह्य-शुद्धि का ध्यान रखा जाता था। शुद्ध तथा निर्मल वस्त्र मन पर भी प्रभाव डालते हैं। गृहस्थों के लिए व्यवहार-शुद्धि आवश्यक है। मण्णुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते कामदेव जब भगवान् के दर्शनार्थ निकला तो उसके साथ बहुत से मनुष्य और भी थे। प्रतीत होता है वह पैदल ही भगवान् के दर्शनार्थ गया / / अप्पमहग्घाभरणालंकिय सरीरे—उसने अपने शरीर को अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत किया। इससे प्रकट होता है कि उसके मन में उत्साह एवं उमंग थी। भगवान् के आगमन को उसने एक उत्सव समझा और हर्षित होता हुआ वन्दनार्थ गया / . मूलम् तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव धम्मकहा समत्ता // 116 // छाया ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः कामदेवस्य श्रमणोपासकस्य तस्यां च यावद्धर्मकथा समाप्ता। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 227 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन