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________________ भावार्थ तदनन्तर उस कामदेव श्रमणोपासक ने निरुपसर्ग—'उपसर्ग नहीं रहा' यह जानकर प्रतिमा (अभिग्रह) का पारणा किया। भगवान् महावीर का चम्पा में पदार्पणमूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ // 114 // . छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः यावद्विहरति / शब्दार्थ तेणं कालेणं तेणं समएणं—उस काल उस समय, समणे भगवं महावीरे श्रमण भगवान् महावीर, जाव विहरइ—यावत् विचर रहे थे। ___ भावार्थ-उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर चम्पा नगरी के बाहर उद्यान में ठहरे हुए थे। कामदेव का दर्शनार्थ जाना— मूलम् तए णं से कामदेवे समणोवासए इमीसे कहाए लद्धठे समाणे "एवं खल समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसहं पारित्तए" त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपहित्ता सुद्ध-प्पावेसाई वत्थाई जाव अप्प-महग्घ जाव मणुस्स-वग्गुरा परिक्खित्ते सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चम्पं नगरिं मज्झं-मज्झेणं निगच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव पज्जुवासइ // 115 // छाया ततः खलु स कामदेवः श्रमणोपासकोऽस्यां कथायां लब्धार्थः सन् “एवं खलु श्रमणो भगवान् महावीरो यावद् विहरति, तच्छ्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा नमस्कृत्य ततः प्रतिनिवृत्तस्य पौषधं पारयितुम्" इति कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य शुद्धप्रवेष्यानि वस्त्राणि यावद्-अल्पमहाघ यावद्-मनुष्य वागुरा परिक्षिप्तः स्वस्मात् गृहात प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य चम्पां नगरी मध्यं-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य येनैव पूर्णभद्रश्चैत्यो यथा शंखो यावत् पर्युपास्ते / शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, से कामदेवे समणोवासए—वह कामदेव श्रमणोपासक, इमीसे कहाए लद्धढे समाणे यह बात सुनकर कि, एवं खलु समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर, जाव विहरइ यावद् विचर रहे हैं, (सोचने लगा कि), तं सेयं खलु मम मेरे लिए यह उचित है कि, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान महावीर को, वंदित्ता नमंसित्ता वन्दना नमस्कार कर, तओ पडिणियत्तस्स वहाँ से लौटकर, पोसहं पारित्तए—पौषध का पारणा करूं / त्ति कटु एवं संपेहेइ–इस प्रकार विचार किया, संपेहित्ता विचार कर, सुद्धप्पावेसाई वत्थाई शुद्ध प्रवेश योग्य श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 226 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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