________________ आचार्य उनसे अनभिज्ञ थे, किन्तु उनकी स्वाभाविक रुचि दूसरी ओर थी। अतः पूर्वो तथा दृष्टिवाद के अध्ययन-अध्यापन का क्रम टूट गया, तथा काल की गति के अनुसार धारणाशक्ति भी धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई, जिससे समग्र पूर्व साहित्य और दृष्टिवाद का व्यवच्छेद हो गया। इस बात को प्रमाणित करने के लिए भगवती सूत्र में आया हुआ भगवान् महावीर और गौतम का संवाद पर्याप्त स्पष्टीकरण करता है। गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने स्वयं प्रतिपादन किया है कि मेरे प्रवचन सम्बन्धी पूर्वो का ज्ञान एक हजार वर्ष तक विद्यमान रहेगा। ___ श्वेताम्बर तथा दिगम्बर परम्पराओं के अनुसार अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी थे। भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर-निर्वाण के 170 वर्ष पश्चात् हुआ। उन्हीं के साथ चतुर्दश पूर्वधर या श्रुतकेवली का लोप हो गया। दिगम्बर मान्यतानुसार यह लोप वीरनिर्वाण के 162 वर्ष बाद माना जाता है। इस प्रकार दोनों में वर्ष का अन्तर है। आचार्य भद्रभाहु के बाद दस पूर्वधरों की परम्परा चली। उसका अन्त आर्यवज्र स्वामी के साथ हुआ। उनकी मृत्यु वीर-निर्वाण के 584 वर्ष पश्चात् अर्थात् 114 वि. में हुई। दिगम्बर मान्यतानुसार अन्तिम दश पूर्वधर धरसेन हुए और उनकी मृत्यु वीरनिर्वाण के 245 वर्ष पश्चात् हुई। श्रुतकेवली के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं है। दोनों की मन्यताओं में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। उस समय में भी केवल 8 वर्ष का अन्तर है। इसका अर्थ यह है कि उस समय तक दोनों परंपराएं प्रायः एक थीं। किन्तु दसपूर्वधर के विषय में नाम का भेद है और समय में भी 236 वर्ष का भेद है। दिगम्बर परम्परानुसार भद्रबाहु के बाद दस पूर्वधरों की परम्परा केवल 183 वर्ष रही। श्वेताम्बरों के अनुसार यह परम्परा 414 वर्ष तक चलती रही। आर्यवज्र के पश्चात् आर्यरक्षित हुए। वे 6 पूर्व सम्पूर्ण और दसवें पूर्व के 24 यविक जानते थे। ज्ञान का उत्तरोत्तर ह्रास होता गया। आर्यरक्षित के शिष्यों में केवल दुर्बलिका पुष्पमित्र नौ पूर्व सीख सके किन्तु वे भी अनाभ्यास के कारण नवम पूर्व को भूल गए। वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् पूर्वो का ज्ञान सर्वथा लुप्त हो गया। दिगम्बर मान्यतानुसार यह स्थिति घीर-निर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् हो गई। पूर्वाश्रित साहित्य पूर्वो के लुप्त हो जाने पर भी उनके आधार पर बना हुआ या उनमें से उद्धृत साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इस प्रकार के साहित्य को निर्वृहित (प्रा. णिज्जूहिय) कहा गया है। इस प्रकार के ग्रन्थों के कुछ नाम निम्नलिखित हैंग्रन्थ का नाम पूर्व का नाम 1. उवसग्गहरथोत्त अज्ञात 2. ओहणिज्जुत्ति पच्चक्खाणप्पवाय श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 18 / प्रस्तावना