________________ अर्थात् चौदह पूर्व जान लेने के बाद शास्त्रीय ज्ञान पूर्ण हो जाता है। फिर अन्य अङ्ग साहित्य को पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहती। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 11 अङ्गों में प्रतिपादित ज्ञान पूर्वो से ही शब्दतः या अर्थतः उद्धृत किया गया / शीलांकाचार्य ने आचारांग की टीका में पूर्वो को सिद्धसेन कृत सन्मति तर्क के समान द्रव्यानुयोग में गिना है। इसका अर्थ यह है कि पूर्वो का मुख्य विषय जैन मान्यताओं का दार्शनिक पद्धति से प्रतिपादन रहा होगा। प्रत्येक पूर्व के अन्त में प्रवाद शब्द और उनका दृष्टिवाद में समावेश भी इसी बात को प्रकट करता है। पूर्वो के परिमाण के विषय में पौराणिक मान्यता है कि अम्बारी सहित खड़े हाथी को ढकने में जितनी स्याही लगती है उतनी स्याही से एक पूर्व लिखा जाएगा। इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि शास्त्रार्थ में जिन युक्तियों का प्रयोग किया जाता था उनका परिमाण विशाल था। दृष्टिवाद तथा पूर्वो का संस्कृतभाषा में होना भी इसी बात की पुष्टि करता है कि उनका प्रयोग विद्वत्सभा में होता होगा। भगवान महावीर को भी कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् कुछ समय तक विद्वानों से शास्त्रार्थ करना पड़ा। उनकी तत्कालीन वाणी भी पूर्व साहित्य में सम्मिलित कर ली गई होगी। किन्तु महावीर को विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ की यह प्रणाली पसन्द नहीं आई, उन्होंने इसे व्यर्थ का वाग्जाल समझा। परिणामस्वरूप सर्वसाधारण में उपदेश देना प्रारम्भ किया और उसके लिए जनता की बोली अधर्मागधी को अपनाया। अब भगवान का उपदेश पंडितों को पराजित करने के लिए नहीं होता था। उनका ध्येयं था, जन-साधारण को धर्म के तत्त्व से अवगत कराना। जैन परम्परा में यह दृष्टिकोण अब तक विद्यमान है। उस समय उन्होंने जो उपदेश दिए वे अङ्ग-साहित्य में उपनिबद्ध हुए। उनमें दार्शनिक भूमिका होने पर भी शैली पूर्णतया जनपदीय थी। इसलिए जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य में कहा है कि स्त्री तथा सर्वसाधारण के लिए पूर्वो के आधार पर द्वादशांगी की रचना हुई। . . अब हम दृष्टिवाद में पूर्व साहित्य के सन्निविष्ट होने के प्रश्न को लेते हैं। नन्दी सूत्र में जहां दृष्टिवाद के उपकरणों का उल्लेख है वहां 'पूर्वगत' शब्द आया है। इसका अर्थ यह है कि दृष्टिवाद का वह प्रकरण पूर्व साहित्य के आधार पर रचा गया या उसका सार रहा होगा। पूर्व में जिन विषयों तथा मत-मतान्तरों को लेकर विस्तृत चर्चा रही होगी, इसमें इन्हीं का संक्षिप्त परिचय रहा होगा। ___ अब हमारे सामने प्रश्न आता है पूर्व साहित्य तथा दृष्टिवाद के लोप का। यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर स्वामी के बाद एक हजार वर्ष तक जैन परम्परा का मुख्य लक्ष्य आत्मसाधना, चारित्र-विकास तथा साधारण जनता में प्रचार रहा है। मतमतान्तरों के खण्डन-मण्डन तथा विद्वानों में प्रयुक्त संस्कृत भाषा की ओर जैन मुनियों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। खंडन-मंडन को कोरा वाग्जाल समझकर जन मानस तक पहुंचने के लिए स्थानीय बोलियों को अपनाया, तत्कालीन जैन साहित्य में शास्त्रार्थ पद्धति तथा हेतुविद्या सम्बन्धी उल्लेख आते हैं, इससे यह तो नहीं कहा जा सकता कि जैन श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 17 / प्रस्तावना