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________________ पागसासणे दाहिणड्डलोगाहिवई बत्तीस विमाणसयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिन्दे अयरम्बरवत्थधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचित्त चञ्चल कुण्डलविलिहिज्जमाणगण्डे भासुरबोन्दी पलम्बवणमाले सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सभाए सोहम्माएत्ति" शक्रादिशब्दानां च व्युत्पत्त्यर्थभेदेन भिन्नार्थता द्रष्टव्या, तथाहि-शक्तियोगाच्छक्रः, देवानां च परमेश्वरत्वाद्देवेन्द्रः, देवानां मध्ये राजमानत्वाच्छोभमानत्वाद्देवराजः, वज्रपाणिः–कुलिशकरः, पुरं—असुरादिनगरविशेषस्तस्य दारणात्पुरन्दरः, तथा क्रतुशब्देनेह प्रतिमा विवक्षिताः, तथा कार्तिकश्रेष्ठित्वे शतं क्रतूनाम्-अभिग्रह विशेषाणां यस्यासौ शतक्रतुरिति चूर्णिकारव्याख्या, तथा पञ्चानां मन्त्रिशतानां सहस्रमक्ष्णां भवतीति तद्योगादसौ सहस्राक्षः, तथा मघ शब्देनेह मेघा विवक्षितास्ते यस्य वशवर्तिनः सन्ति स मघवान्, तथा पाको नाम-बलवांस्तस्य रिपुस्तच्छासनात्पाकशासनः, लोकस्यार्द्धम्अर्द्धलोको दक्षिणो योऽद्धलोकः तस्य योऽधिपतिः स तथा, ऐरावणवाहणे-ऐरावतो-हस्ती स वाहनं यस्य स तथा, सुष्ठु राजन्ते ये ते सुरास्तेषामिन्द्रः-प्रभुः, सुरेन्द्रः, सुराणां देवानां वा इन्द्रः सुरेन्द्रः, पूर्वत्र देवेन्द्रत्वेन प्रतिपादितत्वाद—न्यथा वा पुनरुक्तपरिहारः कार्यः, अरजांसि–निर्मलानि अम्बरं—आकाशं तद्वदच्छत्त्वेन यानि तान्यम्बराणि तानि च वस्त्राणि तानि धारयति यः स तथा, आलगितमालम् —आरोपितं-स्रगमुकृटं यस्य स तथा, नवे इव नवे हेम्नः-सुवर्णस्य सम्बन्धिनी चारुणी शोभने चित्रे चित्रवती चञ्चले ये कुण्डले ताभ्यां विलिख्यमानौ गण्डौ यस्य स तथा शेषं प्रागिवेति।" ___ प्रस्तुत पाठ में देवराज शक्र के बहुत से नाम दिए गए हैं। टीकाकार ने व्युत्पत्ति द्वारा उनका अर्थ प्रस्तुत किया है, वह इस प्रकार है 1. शक्रः—इसका अर्थ है शक्तिशाली / यह शब्द संस्कृत की शक् धातु से बना है / 2. देवेन्द्रः—देवों के परमेश्वर अर्थात् स्वामी / 3. देवराजः-देवों के बीच विराजमान अर्थात् सुशोभित / 4. वज्रपाणी—जिसके हाथ में वज्र है। . 5. पुरन्दरः–पुर अर्थात् असुरों के नगरों का दारण अर्थात् ध्वंस करने वाला। 6. शतक्रतुः क्रतु का अर्थ है प्रतिमाएं अर्थात् श्रावक द्वारा किए जाने वाले अभिग्रह विशेष / कहा जाता है इन्द्र ने अपने पूर्व जन्म में, जब वह कार्तिकश्रेष्ठि के रूप में उत्पन्न हुआ था, सौ बार श्रावक की प्रतिमाएं अङ्गीकार की थीं। तुलना–वैदिक परम्परा में क्रतु का अर्थ यज्ञ है, और यह माना जाता है कि सौ यज्ञ करने वाला इन्द्रासन का अधिकार बन जाता है। | , श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 223 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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