________________ इतना कहकर दोनों हाथ जोड़कर चरणों पर गिर पड़ा और बारम्बार क्षमा याचना करने लगा। तत्पश्चात् जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। टीका–देव ने धर्म साधना से विचलित करने के लिए अनेक प्रयत्न किए किन्तु सफल नहीं हो सका। अन्त में अपने स्वाभाविक सुन्दर रूप में प्रकट हुआ और कामदेव से क्षमा याचना की। साथ ही उसने यह भी बताया देवराज शक्रेन्द्र ने भरी सभा में तुम्हारी दृढ़ता की प्रशंसा की थी। मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ और परीक्षा लेने के लिए यहाँ चला आया। अब मुझे विश्वास हो गया है कि शक्रेन्द्र ने जो कहा था वह अक्षरशः ठीक है। तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, तुम्हारा जीवन सफल है क्योंकि निर्ग्रन्थ प्रवचन में तुम्हारी अटूट श्रद्धा है। प्रस्तुत सूत्र में देवता के स्वरूप का वर्णन करते हुए यावत् शब्द का प्रयोग किया गया है, इसका अर्थ है–थोड़ा-सा वर्णन यहां देकर शेष अन्यत्र अनुसन्धान के लिए छोड़ दिया गया है। वह वर्णन इस प्रकार है-“कडगतुडियथम्भियभुयं अङ्गदकुण्डलमट्ठगण्डतलकण्णपीढधारं विचित्तहत्याभरणं विचित्तमालामउलिं कल्लाणगपवरवत्थपरिहियं कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरं भासुरबोन्दिं पलम्बवणमालाधरं दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गन्धेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्याए इड्डीए दिव्वाए जुईए दिव्याए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाएत्ति", कण्ठ्यम् / नवरं कटकानि–कङ्कणविशेषाः, तुटितानि-बाहुरक्षकास्ताभिरतिबहुत्वास्तम्भितौ स्तब्धीकृतौ भुजौ यस्य तत्तथा, अङ्गदे च–केयूरे, कुण्डले च–प्रतीते मृष्टगण्डतले घृष्टगण्डे ये कर्णपीठाभिधाने-कर्णाभरणे ते च धारयति यत्तत्तथा, तथा विचित्रमालाप्रधानो मौलिमुकुटं मस्तकं वा यस्य तत्तथा, कल्याणकम्-अनुपहतं प्रवरं वस्त्रं परिहितं येन तत्तथा, कल्याणकानि-प्रवराणि माल्यानि–कुसुमानि अनुलेपनानि च धारयति यत्तत्तथा, भास्वर बोन्दीकं दीप्तशरीरम्, प्रलंबा या वनमाला-आभरण-विशेषस्तां धारयति यत्तत्तथा, दिव्येन वर्णेन युक्तमिति गम्यते, एवं सर्वत्र, नवरं ऋद्ध्या विमानवस्त्रभूषणादिकया, युक्त्याइष्टपरिवारादियोगेन, प्रभया-प्रभावेन, छायया–प्रतिबिम्बेन, अर्चिषा-दीप्तिज्वालया, तेजसा–कान्त्या, लेश्यया-आत्मपरिणामेन, उद्योतयत्-प्रकाशयत्-प्रभासयत्-शोभयदिति, प्रासादीयं- चित्ताह्लादकं, दर्शनीयं-यत्पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति, अभिरूपं-मनोज्ञं, प्रतिरूपं-द्रष्टारं 2 प्रतिरूपं यस्य 'विकुळ'—वैक्रियं कृत्वा अन्तरिक्षप्रतिपन्नः-आकाशस्थितः। 'सकिङ्किणीकानि'क्षुद्रघण्टिकोपेतानि।" उपरोक्त सूत्र पाठ में 'सक्कंसि' के पहले भी 'जाव' अर्थात् यावत् शब्द है। उस का पूरक नीचे लिखा पाठ है 'सक्के देविन्दे' इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यम्-“वज्जपाणी पुरन्दरे सयक्कऊ सहस्सक्खे मघवं | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 222 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन /