________________ पोसहसालाए पोसहिए—पौषधशाला में पौषध अङ्गीकार करके, बंभयारी जाव-ब्रह्मचारी यावत्, दब्भसंथारोवगए—डाभ के संथारे (शय्या) पर बैठा हुआ, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं श्रमण भगवान् महावीर से प्राप्त हुई, धम्मपण्णत्तिं धर्मप्रज्ञप्ति को, उवसंपज्जित्ताणं विहरइ–स्वीकार कर विचर रहा है। नो खलु से सक्का—यह शक्य नहीं कि उसे, केणइ देवेण वा—कोई देव, दाणवेण वा कोई दानव, जाव—यावत्, गंधव्वेण वा गन्धर्व, निग्गंथाओ पावयणाओ—निर्ग्रन्थ प्रवचन से, चालित्तए वा–विचलित, खोभित्तए वा–अथवा क्षुब्ध कर सके, विपरिणामित्तए वा—अथवा उसके भावों को बदल सके, तएणं अहं—तब मैं, सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो देवेन्द्र देवराज शक्र की, एयमढें—इस बात पर, असद्दहमाणे विश्वास न करता हुआ, इहं हव्वमागए तत्काल यहां आया, तं अहो णं देवाणुप्पिया-अहो देवानुप्रिय !, इड्डी 6 लद्धा ३-तुमने ऐसी ऋद्धि प्राप्त की, तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिया!, इड्डी जाव अभिसमन्नागया हे देवानुप्रिय! तुमने ऐसी ऋद्धि का साक्षात्कार किया यावत् वह तुम्हारे सन्मुख आई, तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! हे देवानुप्रिय ! मैं तुम से क्षमा की याचना करता हूं, खमंतु मज्झ देवाणुप्पिया हे देवानुप्रिय! मुझे क्षमा करो, खंतुमरिहंति णं देवाणुप्पिया देवानुप्रिय! आप क्षमा करने योग्य हैं, नाइं भुज्जो करणयाए फिर कभी ऐसा नहीं किया जाएगा, त्ति कटु-ऐसा कहकर, पायवडिए-पावों पर गिर पड़ा, पंजलिउडे हाथ जोड़कर, एयमलै भुज्जो 2 खामेइ इस बात के लिए बार-बार क्षमा याचना करने लगा, खामित्ता–क्षमा याचना करके, जामेव दिसं पाउब्भूए—जिस दिशा से प्रकट हुआ था, तामेव दिसं पडिगए—उसी दिशा में चला गया। ___भावार्थ—उसने वक्षस्थल पर हार पहने हुए दश दिशाओं को प्रकाशित करने वाले चित्ताह्लादक, दर्शनीय, अभिरूप, प्रतिरूप तथा दिव्य देवरूप को धारण किया, पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ, और आकाश में खड़ा हो गया। उसने पांच वर्णों वाले सुन्दर वस्त्र पहन रखे थे, जिनमें धुंगरू लगे हुए थे। तत्पश्चात् वह कामदेव श्रमणोपासक से इस प्रकार बोला—“देवानुप्रिय! तुम धन्य हो, पुण्यशील हो, कृतार्थ हो, कृत लक्षण हो। तुम्हारा जीवन और मनुष्यत्व सफल हुआ। क्योंकि तुम्हारी निर्ग्रन्थ प्रवचन में दृढ़ श्रद्धा है। हे देवानुप्रिय! देवराज शक्र ने चौरासी हजार सामानिक तथा अन्य देवी देवताओं के बीच भरी सभा में यह घोषणा की थी—“हे देवानुप्रियो! जम्बूद्वीप नामक द्वीप, भारत क्षेत्र में चम्पा नगरी है वहां कामदेव श्रमणोपासक पौषधशाला में भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म की आराधना कर रहा है, उसे कोई देव, असुर, या गन्धर्व धर्म से विचलित करने में समर्थ नहीं है। कोई भी उसे निर्ग्रन्थ प्रवचन से स्खलित नहीं कर सकता। उसके विचारों को नहीं बदल सकता।" देवेन्द्र देवराज शक्र की इस बात पर मुझे विश्वास न हुआ और मैं तत्काल यहाँ आया। अहो देवानुप्रिय! तुमने ऐसी ऋद्धि प्राप्त की। देवानुप्रिय! मैं क्षमा याचना करता हूँ। मुझे क्षमा कीजिए। आप मुझे क्षमा करने में समर्थ हैं। फिर कभी ऐसा काम नहीं किया जाएगा।" श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 221 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन |