________________ 1. उग्र-विष—अर्थात् वह विष जो असह्य वेदना उत्पन्न करने वाला होता है। 2. चण्ड-विष—अर्थात् वह विष जो तुरन्त सारे शरीर में व्याप्त हो जाता है और अपना प्रभाव शीघ्र दिखाता है। 3. घोर विष—अर्थात् वह प्रभावशाली, अत्यन्त भयंकर विष जिससे तुरन्त मृत्यु हो जाती है। ___ मूलम् तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्प-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ / सो वि दोच्चंपि तच्चंपि भणइ, कामदेवोवि जाव विहरइ // 108 // छाया ततः खलु स कामदेवः श्रमणोपासकस्तेन देवेन सर्परूपेणैवमुक्तः सन् अभीतो यावद्विहरति / सोऽपि द्विवारमपि त्रिवारमपि भणति, कामदेवोऽपि यावद्विहरति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से कामदेवे समणोवासए—वह कामदेव श्रमणोपासक, तेणं देवेणं सप्परूवेणं—उस सर्प रूपधारी देव द्वारा, एवं वुत्ते समाणे इस प्रकार कहे जाने पर, अभीए जाव विहरइ–निर्भय, यावद् ध्याननिष्ठ स्थिर रहा, सो वि—उस देव ने भी, दोच्चंपि तच्चपि भणइ दूसरी और तीसरी बार कहा, कामदेवो वि—कामदेव भी, जाव—यावत्, विहरइ ध्यान में स्थिर रहा / भावार्थ-सर्प रूपधारी देव के ऐसा कहने पर भी कामदेव निर्भय यावत् ध्यानस्थ रहा। देव ने दूसरी और तीसरी बार कहा परन्तु कामदेव विचलित न हुआ। - मूलम् तए णं से देदे सप्यरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते 4 कामदेवस्सं समणोवासयस्स सरसरस्स कायं दुरूह, दुहित्ता पच्छिमभाएणं तिक्खुत्तो गीवं वेढेइ, वेढित्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निक्कुट्टेइ // 106 // छाया ततः खलु स देवः सर्परूपः कामदेवं श्रमणोपासकमभीतं यावत्पश्यति, दृष्ट्वा आशुरुप्तः 4 कामदेवस्य श्रमणोपासकस्य सरसरेति कायं दूरोहति, दूरुह्य पश्चिमभागेन त्रिःकृत्वो ग्रीवां वेष्टयति वेष्टयित्वा तीक्ष्णाभिर्विषपरिगताभिदंष्ट्राभिरुरस्येव निकुट्टति। .. शब्दार्थ तए. णं तदनन्तर, से देवे सप्परूवे सर्प रूपधारी उस देव ने, कामदेवं समणोवासयं—कामदेव श्रमणोपासक को, अभीयं जाव पासइ–निर्भय यावत् ध्यानस्थ देखा, पासित्ता देखकर, आसुरुत्ते—अत्यन्त रुष्ट होकर, कामदेवस्स समणोवासयस्स सरसरस्स कायं दुरूहइ कामदेव श्रमणोपासक के शरीर पर सरसर करता हुआ चढ़ गया, दुरूहित्ता-चढ़कर, पच्छिम भाएणं—पीछे की ओर से, तिक्खुत्तो—तीन बार, गीवं वेढेइ—(उसकी) गर्दन को लपेट लिया, वेढित्ता लपेटकर, तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं तीक्ष्ण और विषैली दाढ़ों से, उरंसि चेव निक्कुट्टेइ वक्षस्थल में डंक मारा। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 217 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन /