________________ लोयणं-लोचन लाल थे, जमल जुयल चंचल जीहं—जुड़ी हुई दोनों जिह्वाएँ बाहर लपक रही थीं, धरणीयल वेणीभूयं—वह अत्यन्त काला होने के कारण पृथ्वी की वेणी के समान प्रतीत हो रहा था, उक्कुड फुड कुडिलजडिल कक्कस वियड फुडाडोवकरण दच्छं—उत्कृष्ट-प्रकट-कुटिल-जटिल-कठोर तथा भयंकर फण फैलाए हुए था, लोहागर धम्ममाण धमधमेंत घोसं—लोहे की धमन भट्टी के समान फुफकार कर रहा था, अणागलिय तिव्व चंडरोसं—दुर्दान्त, तीव्र रोष से भरा था, सप्परूवं विउव्वइ–(उस देव ने) ऐसे सर्प का रूप बनाया, विउव्वित्ता—बना कर, जेणेव पोसहसाला—जहां पौषधशाला थी, जेणेव कामदेवे समणोवासए—जहाँ कामदेव श्रमणोपासक था, तेणेव उवागच्छइ—वहाँ आया, उवागच्छित्ता–आकर, कामदेवं समणोवासयं—कामदेव श्रमणोपासक को, एवं वयासी—इस प्रकार बोला, हं भो! कामदेवा! समणोवासया! अरे कामदेव श्रमणोपासक!, जाव—यावत्, न भंजेसि—यदि तू (शील आदि व्रतों को) नहीं छोड़ेगा, तो ते अज्जेव अहं सरसरस्स कायं दुरूहामि तो मैं अभी तेरे शरीर पर सर-सर करता हुआ चढ़ता हूं, दुरूहित्ता-चढ़कर, पच्छिमेणं भाएणं पिछले भाग से, तिक्खुत्तो तीन बार, गीवं वेढेमि—गले को लपेट लूँगा, वेढित्ता लपेटकर, तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं तीक्ष्ण विषैली दाढ़ाओं से, उरंसि चेव निकुट्टेमि वक्षस्थल में डराँगा, जहा णं तुमं—जिस से तू, अट्टदुहट्टवसट्टे—अत्यन्त दुख से पीड़ित होकर, अकाले चेव—असमय में ही, जीवियाओ ववरोविज्जसि—जीवन से रहित हो जाएगा। ___भावार्थ—जब हस्तिरूप धारी पिशाच कामदेव श्रावक को धर्म से विचलित न कर सका तो धीरे-धीरे लौट गया। पौषधशाला से बाहर निकला और हाथी का रूप त्याग दिया। उसने एक विकराल सर्प का रूप धारण किया जो उग्र विष, चंड विष, घोर विष तथा महाकाय था। स्याही और ऐरन के समान काला था। नेत्र विष और रोष से भरे हुए थे, मानों काजल का पिंड हो। नेत्र रक्त एवं अरुण थे। जिह्वा युगल लपलपा रहा था। ऐसा मालूम होता था जैसे कि पृथ्वी की वेणी हो। काला, अत्यन्त प्रकट, कुटिल, जटिल, कठोर और भयङ्कर फण फैलाए हुए था। लुहार की धमनी के समान फुफकार कर रहा था। वह दुर्दान्त, तीव्र और भयङ्कर क्रोध से भरा हुआ था। इस प्रकार सर्प का रूप बनाकर वह देव पौषधशाला में कामदेव के पास पहुँचा और बोला—“अरे कामदेव श्रावक! यदि तू शील आदि व्रतों को भङ्ग नहीं करेगा तो मैं अभी तेरे ऊपर सर-सर करता हुआ चढ़ जाऊंगा। गले को लपेट लूँगा और तीक्ष्ण विषैली दाढाओं मे वक्षस्थल में डसूंगा जिससे तू दारुण दुख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से रहित हो जाएगा। टीका प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा उपस्थापित तीसरे उपसर्ग का वर्णन है। हाथी के रूप में अनेक कष्ट देने पर भी जब कामदेव श्रावक साधना से विचलित न हुआ तो पिशाच धीरे-धीरे बाहर निकला और उसने भयंकर सांप का रूप धारण किया। उसका वर्णन करते हुए सूत्रकार ने विष के तीन विशेषण दिए हैं श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 216 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन