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________________ महाकायं मसी-मूसा-कालगं नयण-विस-रोस-पुण्णं, अंजण-पुंज-निगरप्पगासं, रत्तच्छं लोहिय-लोयणं जमल-जुयल-चंचल-जीहं, धरणी-यल-वेणीभूयं, उक्कुड-फुडकुडिल-जडिल-कक्कस-वियड-फुडाडोव-करण-दच्छं, लोहागर-धम्ममाण-धमधमेंत-घोसं, अणागलिय-तिव्व-चंड रोसं सप्प-रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी–“हं भो! कामदेवा! समणोवासया! जाव न भंजेसि, तो ते अज्जेव अहं सर-सरस्स कायं दुरुहामि, दुरुहित्ता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं वेडेमि वेढ़ित्ता तिक्खाहिं विस-परिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुट्टैमि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसटे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि // 107 // छाया ततः खुल स देवो हस्तिरूपः कामदेवं श्रमणोपासकं यदा नो शक्नोति यावत् शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कति, प्रत्यवष्वष्ट्य पौषधशालातः प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य दिव्यं हस्तिरूपं विप्रजहाति, विप्रहायैकं महद् दिव्यं सर्परूपं विकुरुते, उग्रविषं चण्डविषं घोरविषं महाकायं मषीमूषाकालकं नयनविषरोषपूर्णम्, अञ्जनपुञ्जनिकरप्रकाशं रक्ताक्षं, लोहितलोचनं यमल युगल चंचल जिह्व धरणी तलवेणी भूतम्, उत्कट स्फुट कुटिल जटिल कर्कश विकटस्फुटाटोपकरण दक्ष, लोहाकर भायमान धमधमद्-घोषम् अनाकलित-तीव्र चण्डरोषं सर्परूपं विकुरुते, विकृत्य येनैव पौषधशाला येनैव कामदेवः श्रमणोपासकस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य कामदेवं श्रमणोपासकमेवमवादीत्- "हं भो! कामदेव! श्रमणोपासक! यावत् न भनक्षि तर्हि तेऽद्यैवाहं सरसरेति कायं दूरोहामि,, दूरुह्य पश्चिमेन भागेन त्रिःकृत्वा ग्रीवां वेष्टयामि, वेष्टयित्वा तीक्ष्णाभिर्विषपरिगताभिदंष्ट्राभिरुरस्येव निकुटामि यथा खलु त्वमार्त्तदुःखार्त वशार्तोऽकाल एव जीविताद् व्यपरोपयिष्यसे।" __ शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे हत्थिरूवे वह हस्तिरूपधारी देव, कामदेवं समणोवासयं कामदेव श्रमणोपासक को, जाहे नो संचाएइ—जब विचलित करने में समर्थ न हुआ, जाव—यावत्, सणियं सणियं पच्चीसक्कइ-धीरे-धीरे लौट गया, पच्चोसक्कित्ता लौटकर, पोसहसालाओ पौषधशाला से, पडिणिक्खमइ निकला, पडिणिक्खमित्ता—निकलकर, दिव्वं हत्थिरूवं विप्पजहइ-दिव्य हस्तिरूप को छोड़ा, विप्पजहित्ता–छोड़कर, एगं महं दिव्वं—एक महान् विकराल, सप्परूवं—सांप का रूप, विउव्वइ–धारण किया, उग्गविसं—वह सर्प उग्र विष वाला, चंडविसं—चंड विष वाला, घोरविसं घोर विष वाला, महाकायं महाकाय, मसीमूसाकालगं—लोहे की ऐरन के समान काला था, नयणविसरोसपुण्णं नेत्र विष और रोष से भरे थे, अंजणपुजनिगरप्पगासं वर्ण काजल के पुञ्ज के समान था, रत्तच्छं-आखें लाल थीं, लोहिय श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 215 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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