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________________ (चार पैर, सूण्ड, लिङ्ग और पूञ्छ) सुडौल थे। शरीर की रचना दृढ़ तथा सुन्दर थी। आगे से उभरा हुआ और पीछे से वराह के समान झुका हुआ था। कुक्षि बकरी के समान लम्बी और लटकी हुई थी। पेट, होंठ और सूण्ड नीचे लटक रहे थे, दाँत मुंह से बाहर निकले हुए मुकुलित मल्लिका पुष्प की भाँति निर्मल और सफेद थे। उनके ऊपर सोने का वेष्ठन था मानों सोने की म्यान में रखे हुए हों। सूण्ड का अग्रभाग झुके हुए धनुष के समान मुडा हुआ था, पैर कछुए के समान स्थूल और चपटे थे। पूंछ सटी हुई तथा यथा-प्रमाण थी। ____ मूलम्—मत्तं मेहमिव गुल-गुलेंतं, मण-पवण-जइण-वेगं, दिव्वं हत्थिरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता जेणेव पोसह-साला, जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी—“हं भो! कामदेवा! समणोवासया! तहेव भणइ जाव न भंजेसि, तो ते अज्ज अहं सोंडाए गिण्हामि, गिण्हित्ता पोसहसालाओ नीणेमि, नीणित्ता उड्ढं वेहासं उब्विहामि, उव्विहित्ता तिक्खेहिं दंत-मुसलेहिं पडिच्छामि, पडिच्छित्ता अहे धरणितलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेमि, जहा णं तुमं अट्ट दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि // 102 // छाया—मत्तं मेघमिव गुडगुडायमानं, मनःपवनजयिवेगं, दिव्यं हस्तिरूपं विकुरुते, विकृत्य येनैव पौषधशाला येनैव कामदेवः श्रमणोपासकस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य कामदेवं श्रमणोपासकमेवमवादीत् हंभोः! कामदेव! श्रमणोपासक! तथैव भणति यावन्न भनक्षि तर्हि तेऽद्याहं शुण्डया गृह्णामि, गृहीत्वा पौषधशालातो नयामि, नीत्वोर्ध्वं विहायसमुद्वहामि, उदुह्य तीक्ष्णाभ्यां दन्तमुसलाभ्याम् प्रतीच्छामि प्रतीष्याधो धरणितले त्रिःकृत्वः पादयोर्लोलयामि, यथा खलु त्वमार्त्त दुःखार्त्तवशार्तोऽकाल एव जीविताद्व्यपरोपयिष्यसे। शब्दार्थ—मत्तं मेहमिव गुलगुलेंतं—वह मदोन्मस्त और मेघ के समान गर्जना कर रहा था, मणपवणजइण वेगं उसका वेग मन और पवन से भी तीव्र था, दिव्वं हत्थिरूवं दिव्य हाथी के रूप की, विउव्वइ विक्रिया की, विउव्वित्ता—विक्रिया करके, जेणेव पोसहसाला—जहाँ पौषधशाला थी, जेणेव कामदेवे समणोवासए—जहाँ कामदेव श्रमणोपासक था, तेणेव उवागच्छइ—वहाँ आया, उवागच्छित्ता—आकर, कामदेवं समणोवासयं—कामदेव श्रमणोपासक को, एवं वयासी—इस प्रकार बोला—ह भो! कामदेवा! समणोवासया! अरे कामदेव श्रमणोपासक!, तहेव भणइ उसी प्रकार कहा, जाव—यावत्, न भंजेसि—यदि तू शील-व्रतादि का त्याग नहीं करेगा, तो ते अज्ज अहं तो तुझे मैं आज, सोंडाए गिण्हामि—सूण्ड से पकडूंगा, गिण्हित्ता पकड़कर, पोसहसालाओ नीणेमि—पौषधशाला से बाहर ले जाऊंगा, नीणित्ता—ले जाकर, उड्ढं वेहासं उब्विहामि—ऊपर आकाश में उछालूँगा, उविहित्ता—उछालकर, तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं पड़िच्छामि तीक्ष्ण दन्त मूसलों में श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 212 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन .
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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